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" सद्भावहीकरि दर्शनका सद्भाव है । बहुरि शुद्ध आत्मा ही चारित्रका आश्रय है, जातें छह
जीवनिकी रक्षाका सद्भाव होते तशा असदभाव होते भी अद्धान्माका सभावहीकरि चारित्रका __ सद्भाव है। म भावार्थ-आचारांगादि शब्दश्रुतका जानना तथा जीवादिपदार्थका जानना तथा छह - कायके जीवनिकी रक्षा इनिके होते भी अभव्यके ज्ञानदर्शनचारित्र न होय है, तातै व्यवहारनय
तौ प्रतिषेध्य है । बहुरि शुद्धात्माके होते ज्ञानदर्शनचारित्र होय ही हैं, तातें निश्चयनय याका + प्रतिषेधक है, तातें शुद्धनय उपादेय कया है। आगें अगिले कथनकी सूचनिकाका काव्य कहे हैं।
उपजातिच्छन्दः रागादयो बन्धनिदानमुक्तास्ते शुद्धचिन्मात्रमहोऽतिरिक्ताः
आत्मा परो चा किमु तन्निमित्त मिति प्रणन्नाः पुनरेवमाहुः ॥१२॥ अर्थ-इहां शिष्य फेरि पूछे है, जो रागादिक हैं ते तो बंधके कारण कहे, बहुरि ते शुद्धचैतन्यमात्र मह जो आत्मा तातें अतिरिक्त कहिये भिन्न कहे-न्यारे कहै, तहां तिनिके होने में + आत्मा निमित्त है कि पर कोई निमित्त है ? ऐसे प्रेरे हुए आचार्य फेरि आगाने याका उत्तर - दृष्टांत कहे हैं । गाथा" नीचे लिखी गाथाओंकी आत्मरूपाति संस्कृत और हिन्दी टीका उपलब्ध नहीं है इसलिये नहीं छापो ॥ - गई। तात्पर्यवृत्ति टीका मिलती है यह छपी है।
आघाकम्मादीया पुग्गलदव्वस्स जे इमे दोसा। कह ते कुब्वदि णाणी परदव्वगुणा हु जे णिचं ॥ आधाकम्मादीया पुग्गलदव्वस्स जे इमे दोसा। कहमणुमण्णदि अण्णेण कीरमाणा परस्स गुणा ॥
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