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स्वभावरूप होते संते भी आपके शुद्धस्वभावपणाकरि रागादिनिमित्तपणाका अभावतें आप ही उमरागादि भावनिकरि नाहीं परिणमे है आपके आप ही रागादि परिणामका निमित्त नाहीं है, परद्रव्य
स्वयं रागादिभाव त हुवाणाकरि आत्माके रागादिकका निमित्तभूत है, ताकरि शुद्ध
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फफफफफफफफ
भावतें च्युत होता संता ही रागादिककरि परिणमिये है । ऐसा ही वस्तूका स्वभाव है ।
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भावार्थ - आत्मा एकाकी तौ शुद्ध ही है, परंतु परिणामस्वभाव है । जैसा परका निमित्त मिलें तैसा परिणमे भी है । तातैं रागादिकरूप परिणमे है । सो परद्रव्यका निमित्तरि परिणमे 卐
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फ है। तहां स्फटिकमणिका दृष्टांत है जो स्फटिकमणि आप सौ केवल एकाकार शुद्ध ही है, परंतु
परद्रव्यका ललाई आदिका डंक लागे तब ललाई आदिरूप परिणमे है, सो यह वस्तूहीका
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स्वभाव है । यहां किछू अन्य तर्क नाहीं है । अब इस अर्थका कलशरूप श्लोक है ।
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उपजातिछन्दः
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न जातु रागादिनिमित्तभावमात्माऽऽत्मनो याति यथाऽर्ककान्तः । तस्मिन्निमित्तं परसङ्ग एव वस्तुस्वभावोऽयमुदेति तावत् || १३||
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अनुष्टुप्छन्दः
इति वस्तुस्वभावं स्वं ज्ञानी जानाति तेन सः । रागादीन्नात्मनः कुर्यान्नातो भवति कारकः ॥ १४॥
अर्थ-जैसें अपने वस्तुस्वभावकूं ज्ञानी है सो जाने है, तिस कारणकरि सो ज्ञानी रागादिककुं
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अर्थ - आत्मा है सो आपके रागादिकका निमित्तभावकू कदाचित् न प्राप्त होय है, तिस फ आत्माविषै रागादिकका निमित्त परद्रव्यका संग ही है, इहां सूर्यकांतमणिका दृष्टांत है - जैसें 5 सूर्यकांतमणि आप ही तो अग्निरूप नाहीं परिणमे है, तिसविषै सूर्यका बिंब अभिरूप होनेकूं 5 निमित्त है, तैसें जानना । यह वस्तूका स्वभाव उदयकूं प्राप्त है काहूका किया नाहीं है । आगे कहे हैं, जो ऐसा वस्तुका स्वभावकूं जानता संता ज्ञानी रागादिककूं आपके नाहीं करे है ऐसा सूचनिकाका श्लोक है ।
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