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यथा स्फटिकमणिः शुद्धो न स्वयं परिणमते रागाये। रज्यतेऽन्यैस्तु स रक्तादिभिद्र व्यः ॥४२॥ एवं ज्ञानी शुद्धो न स्वयं परिणमते रागाथैः ।
रज्यतेऽन्यैस्तु स रागादिभिर्दोषैः ॥४३॥ . आत्मख्याति:-यथा खलु केवल: स्कटिकोपलः परिणामस्वभावत्वे सत्यपि स्वस्य शुस्वभावत्वेन रागादिनिमित्त त्वामावात् रागादिभिः स्वयं न परिणमते । परद्रव्येणेव स्वयं रागादिभावापन्नतया स्वस्य रागादिनिमिवभूतेन शुद्ध卐 स्वभावात्तच्यत्रमान एव रागादिभिः परिणम्यते । तथा केवलः किलात्मा परिणामस्वभावत्वे सत्यपि स्वस्य शुद्धस्वभाव ।
वेन रागादिनिमित्तत्वाभावात् रागादिभिः स्वयं न परिणमने परद्रन्येणैव स्वयं रागादिभावापन्नतया स्वस्य रागादि.. निमित्तभूतेन शुद्धस्वभावात्प्रच्यवमान एष रागादिभिः परिणम्येत, इति तापवस्तुस्वभावः।
अर्थ-जैसा स्फटिकमणि आप शद्ध है, सो रागादि कहिये ललाई आदि रंगरूप आप ही तौ नाहीं परिणमे है, अन्य लाल काला आदि द्रव्यनिकरि ललाई आदि रंगरूप परिणमे है। तैसा ही याही प्रकार ज्ञानी है सो आप शुद्ध है, सो रागादि भावनिकर आप ही तो नाहीं परिणमे है, अन्य जे रागादि दोष, तिनिकारे रागादिरूप कोजिये है।
टीका-जैसा निश्चयकरि केवल एकला स्फटिकपाषाण है सो आप परिणामस्वभावरूप .. होते संते भी अपना शुद्धस्वभावपणाकरि तौ रागादिनिमितपणाका अभावतें रागादिकरि आप नाही परिणमे है, आप ही अपके रागादिपरिणाम होनेका निमित्त नाहीं है। बहुरि परद्रव्य . स्वयं रागादिभावकू प्राप्त हुवापणाकरि स्फटिकके रागादि निमित्तभूत है। ताकरि, शुद्धस्वभावते । व्युत होता संता हो रागादिककरि परिणमिये है । तैसा केवल एकला आत्मा है सो परिणाम-ऊ वर्तमान भूत भविष्यत कालमें वा योग्य आहारादि विषयमें नक्कोटि विकल्पसे मेरा आत्मा शुद्ध
है, उसके परकृत आहारदिके विषयमें बन्ध नहीं होता है। यदि उसके भी बन्ध माना जायगा। 4 तो किसी भी कालमें आत्माका निर्वाण नहीं हो सक्ता है।
के जज 55
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