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卐 आत्मख्यातिः---यथोक्तवस्तुस्वभावं जानन् ज्ञानी शुद्धस्वभावादेव न प्रच्यवते, ततो रागद्व ेषमोहादिभावैः स्वयं न परिणमते न परेणापि परिणम्यते, ततष्टकोत्कीर्णे कझापकस्वभावो ज्ञानी रागद्वे पमोहादिभावानामकर्तेदेखि नियमः । अर्थ - ज्ञानी है सो आप ही आपके राग द्वेष मोह तथा कषायभाव नाहीं करे है, तिल 5 कारणकरि सो ज्ञानी तिनि भावनिका कारक कहिये करनेवाला - कर्ता नाहीं है । टीका - जैसा का तैसा वस्तूका स्वभाव जानता संता ज्ञानी है सो अपना शुद्धस्वभावतें 5 ही नाहीं छूटे है, तातें राग द्वेष मोह आदि भावनिकरि आप आप नाही परिणमे है अर परकरि भी नाही परिणमिये है, तातें टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकभावस्वरूप ज्ञानी राग द्वेष मोह आदि भावनिक अकर्ता ही है, ऐसा नियम है
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भावार्थ - ज्ञानी भया, तब वस्तूका ऐसा स्वभाव जान्या, जो आप तो आत्मा शुद्ध है- द्रव्यefeat अपरिणमनस्वरूप है, पर्यायदृष्टिकरि परद्रव्यके निमित्त रागादिरूप परिणमे है, सो अब फ 15 आप ज्ञानी तिनिभावनिका कर्ता न हो है, उदय आवै तिनिका ज्ञाता ही है। आगे कहे हैं "अज्ञानी ऐसा वस्तूका स्वभाव नाहीं जाने है, तार्ते रागादिक भावनिका कर्ता होय है,” याकी 5 सूचनिकाका श्लोक है ।
आपके नहीं करे है, तारों रागादिकका कारक नाही है। आगे ऐसें ही गाथामै कहे हैं। गाथा-गवि रागदोसमोहं कुव्वदि णाणी कसायभावं वा । सयमप्पणो ण सो तेा कारगो तेर्सि भावाणं ॥ ४४ ॥ 卐 नापि रागद्वेषमोहं करोति ज्ञानी कषायभावं वा । स्वयमेवात्मनो न स तेन कारकस्तेषां भावानां ॥४४॥
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अनुष्टुप्छन्दः
इति वस्तुस्वभावं स्वं नाज्ञानी वेचि तेन सः । रागादीनात्मनः कुर्यादतो भवति कारकः ||१५||
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