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卐 पराश्रित सर्व ही व्यवहार छुपा है ऐसे जानू, तातें शुद्धज्ञानस्वरूप अपना आत्मा, ताविर्षे ॥ 1. थिरता राखियो, ऐसा शुद्धनिश्चयका ग्रहणका उपदेश है । आचार्य आश्चर्य भी किया है जो ...
भगवान् अध्यवसानकू छुड़ाया, तो अब सत्पुरुष याकू छोडि अपने स्वरूपविषे क्यों नाही तिष्ठे : + हैं ? यह हमारे अचिरज है। आगे इस अर्थकू गाथामैं कहे हैं गाथा
एवं ववहारणओ पडिसिद्धो जाण णिच्छयणयेण। णिच्छयणयसल्लीणा मुणिणो पावंति णिव्वाणं ॥३६॥
एवं व्यवहारनयः प्रतिषिद्धो जानीहि निश्चयनयेन ।
निश्चयनयसंलीना मुनयः प्राप्नुवन्ति निर्वाणं ॥३६॥ आत्मख्यातिः-आत्माश्रितो निश्चयनयः, पराश्रितो व्यवहारनयः । तत्रैवं निश्चयनयेन पराश्रितं समस्तमध्यव卐 सानं बंधहेतुत्वेन मुमुक्षोः प्रतिषेधयता व्यवहारनय एव किल प्रतिषिद्धः, तस्यापि पराश्रितत्वाविशेषात् । प्रतिषेध्य एवं ॥
चार्य, आत्माश्रितनिश्चयनयाश्रितानामेव ग्रुच्यमानत्वात् , पराश्रितव्यवहारनयस्यैकांतेनामुच्यमानेनाभन्येनाश्रिय卐 भाणत्वाच।
कथमभव्येनाश्रियते व्यवहारनयः ? इति चेत्
अर्थ-एवं कहिये पूर्वोक्तप्रकार अध्यवसानरूप व्यवहारनय है, सो निश्चयनयकरि प्रतिषेध- 5 1 रूप जानू । जे मुनिराज निश्चयके आश्रित हैं, ते निर्वाण प्राप्त होय हैं।
टीका-इहां निश्चयनय है सो तौ आत्मा आश्रित है। बहुरि पर आश्रित है सो व्यव- 7 हारनय है । सो जैसे परके आश्रित समस्त अध्यवसान परकू अर आपकू एक मानना सो बंधका . कारणपणाकरि मोक्षके इच्छककू छुडावता जो निश्चनय, ताकरि तैसे ही निश्चयतै व्यवहारनय ही प्रतिषेध्या है छुडाया है। जाते जैसे अध्यवसान पराश्रित है, तैसें व्यवहारनय भी पराश्रित ; है, यामैं विशेष नाहीं । जातें ऐसा सिद्ध होय है, जो यह व्यवहारनय प्रतिषेधनेयोग्य ही है।
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