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1. युक्त ही है।
ज, संसारके भोगके निमित्त धर्म है ताकू ही श्रद्धे है, ताहीकू प्रतीति करे है, ताही रोचे है, ताहीकू
"स्पर्श है । र कर्मक्षयका निमित्त धर्म है ताकू नाही श्रद्धे है, नाहीं प्रतीति-करे: है, अर कर्म卐 क्षयका निमित्त धर्म है ताकू नहीं रोचे है, नाहीं स्पर्श है।
टीका-अभव्य जीव है सो नित्य ही कर्मफलचेतनारूप वस्तूकू श्रद्धे है। बहुरि नित्यज्ञानचेतनामात्र वस्तूक नाही श्रद्धे है। जाते अगर जीव निलम ही शापारका भेदविज्ञानके योग्य 4 + नाहीं है; तात सो अभव्य ज्ञानमात्र भूतार्थ सत्यार्थ धर्म जो कर्मक्षयका निमित्त है, ता• नाही " " श्रद्धे है । अर शुभकर्ममात्र असत्यार्थ धर्म है, सो भोगका निमित्त है, ताकू श्रद्धे है; तातें ही यह ॥ ॐ अभव्य अभूतार्थ धर्मका श्रद्धान प्रतीति रोचना स्पर्शना इनिकरि उपरिले अवेयकताई के भोग
मात्रनिकू पावे है, बहुरि कर्मत कदाचित् भी नाहीं छूटे है । ताते याकै भूतार्थ सत्यार्थ धर्मका ॥ ॐ श्रद्धानका अभावते साचा श्रद्धान भी नाहीं है। ऐसे होते निश्चयनयकै व्यवहारनयका प्रतिषेध 卐 भावार्थ-अभव्यजीव कर्मफलचेतनाकू जाने है अर ज्ञानचेतनाकू जाने नाही', जातें याकै . - भेदज्ञान होनेकी योग्यता नाहीं है, तातें शुद्ध आत्मिकधर्मका श्रद्धान याकै नाहीं अर शुभ
कर्महीकू धर्म श्रद्धे है, ताका फल अवेयकताईके भोग पावे है, अर. कर्मका क्षय नाहीं होय है, 卐 1 तातें याकै सत्यार्थधर्मका भी श्रद्धान न कहिये अर याहीतें निश्चयनयके व्यवहारनयका निषेध
है। इहां एता और जानना-जो यह हेतुवादरूप अनुभवप्रधान ग्रंथ है, तातें भव्य अभव्यकामा र अनुभवकी अपेक्षा निर्णय है अर यह ही अहेतुवाद आगमतें मिलाइये तब अभव्यके सूक्ष्म ।।
केवलीगम्य ऐसा ही व्यवहारनयकी पक्षका आशय रहिजाय है, सो छद्मस्थके अनुभवगोचर 4 नाहीं भी होय है, परंतु सर्वज्ञदेव जाने है। ताके केवलव्यवहारकी पक्षतें सर्वथा एकांतरूप है
मिथ्यात्व रहै, तातें अभव्यका यह आशय सर्वथा न मिटे, तातें अभव्य ही है। आगे पूछे हैं, जो + निश्चयनय तो व्यवहारका प्रतिषेधक कया अर निश्चयके व्यवहारनय प्रतिषेधनेयोग्य करा, सोम
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