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卐 नाही तातें अभव्य ज्ञानकू भी नाहीं श्रद्धानरूप करे है। बहुरि ज्ञानकूं नाहीं श्रद्धान करता 5 संता अभव्य है सो आचारांग आदि लेकर ग्यारह अंगरूप श्रुतकूं पढता संता भी फ शास्त्रका पढनेका जो गुण है, ताका अभावतें ज्ञानी नाही होय है । शास्त्र पढनेका यह गुण है. जो भिन्न वस्तुभूत ज्ञानमय आत्माका ज्ञान होय सो तिस भिन्नवस्नुभूत ज्ञानकूं नाहीं श्रद्धान करता 5 जो अभव्य, वाके शास्त्र के पढनेकरि आत्मज्ञान करनेकुं नाहों समर्थ हूजिये है । तातें ताकै शास्त्र पढनेका सो भिन्न आत्माका जानना गुण है सो नाहीं है । तातें सांचे ज्ञानश्रद्धानके 5 अभावतें सो अभव्य अज्ञानी ही है, यह नियम है ।
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भावार्थ - अभव्य जीव ग्यारह अंग पढे तौऊ तार्के शुद्ध आत्माका ज्ञान श्रद्धान न होय, ता शास्त्र पढना गुण न किया, तातें सो अज्ञानी ही है। आगे शिष्य फेरि कहे हैं 'तिस 5 धर्मका तौ श्रद्धान होय है, सो कैसें निषेधिये ?' ताका उत्तर कहे हैं। गाथा-सहदिय पत्तयदिय रोचेदिय तह पुणोवि फासेदि ।
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धम्मं भोगणिमित्तं गहु सो कम्मक्खयणिमित्तं ॥ ३९ ॥ श्रद्दधाति प्रत्येति च रोचयति तथा पुनश्च स्पृशति ।
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धर्म भोगनिमित्तं न खलु स कर्मक्षयनिमित्तं ॥ ३९॥
卐 आत्मख्यातिः - अभन्यो हि नित्यकर्मफलचेतनारूपं वस्तु श्रद्ध, नित्यज्ञानचेतनामात्रं न तु श्रद्धचे नित्यमेव फ भेदविज्ञानानर्हत्वात् । यतः स कर्ममोक्षनिमित्तं ज्ञानमात्रं भूतार्थं धर्म न श्रद्धत्ते भोगनिमितं शुभकर्ममात्रमभूतार्थमेव 5 श्रद्धते । तत एवासौ अभूतार्थधर्मश्रद्धानप्रत्ययनरोचनस्पर्शनैरुपरितनय वेयक भोगमात्रमास्कंदन पुनः कदाचनापि चि फ यते ततोऽस्य भूतार्थधर्मश्रद्धानाभावात्, श्रद्धानमपि नास्ति एवं सति तु निश्चयनयस्य व्यवहारनयप्रतिषेधो 5 युज्यत एव ।
hreat प्रतिषेध्यप्रतिषेधकौ व्यवहारनिश्चयनयाविति चेत्
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अर्थ- सो अभव्य जीव धर्म श्रद्धान करे हैं, प्रतीति करे है, रोगे है, तथा स्पर्शे है। परंतु 5
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