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5 पक्षमें तौ मिथ्यात्व अनंतानुबंधोके निमित्ततें बंधे हैं, सो गिणिये है। ऐसे ज्ञानके आलव बंध नाही गिण्या । आगे, राग द्वेष मोहनिके ही आसूत्रपणाका नियम करे हैं। गाथाभावो रागादिजुदो जीवेण कदो दु बंगो होदि । रागादिविप्पक्को अबंधगो जागो वरि ॥ ४ ॥
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भावो रागादियुतः जीवेन कृतस्तु बंधको भवति । रागादिविप्रमुक्तोऽचको ज्ञायको नवरि ॥ ४ ॥
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आत्मख्यातिः–इह खलु रागद्व े पमोहसंपर्कजोऽज्ञानमय एव भावः, अयस्कांतोपलसंपर्कज इव कालायससूची, कर्म 5 कर्तुमात्मानं चोदयति । तद्विवेकजस्तु ज्ञानमयः, अयस्कांतीपल विवेकज इव कालायसमूचीं, अकर्मकरणौत्सुक्यमात्मानं स्वभावेनैव स्थापयति । ततो रागादिसंकीर्णोऽज्ञानमय एव कर्तृव चोदकत्वाद्गंधकः । तदसंकीर्णस्तु स्वभावोद्भासक5 स्वात्केवलं ज्ञायक एवं ; न मनागपि बंधकः ।
अथ रागाद्यसंकीर्ण भावसंभवं दर्शयति
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अर्थ- जो रागादिकरि युक्त भाव जीवकरि कीया होय, सो नवीन कर्मका बंध करनेवाला 5 कया है । बहुरि जो भाव रागादिकभावनिकरि रहित है, सो बंध करनेवाला नाहीं है । केवल जाननेवाला ही है ।
टीका - इस आत्माविषै निश्चयकरि जो रागद्वेषमोहका मिलापर्तें उपज्या भाव होय, सो
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卐 अज्ञानमय हो है, सो जैसें चुबकपाषाण के संपर्कतें उपज्या भाव लोहकी सूईकूं प्रेरे है, चलावे 5 है, तैसें आत्माकं कर्मके करनेकू प्रेरे है । बहुरि तिनि रागादिकके मेदज्ञानतें उपज्या भाव
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सो ज्ञानमय है । सो जैसें चुंबकपाषाणका संसर्गविना सूईका स्वभाव है सो चलनेरूप नाही है, 5 तैसें आत्माकूं कर्मके करनेविषै उत्साहरूप नाहीं ऐसे स्वभावकरि स्थापे है । तातें रागादिकतें फ्र मिल्या अज्ञानमय भाव है सोही कर्मका कर्तापणाविर्षे प्रेरक है, तातें नवीन बंधा करनेवाला