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अर्थ-जो जीव ऐसे माने है, जो में परजीवनिकू आपकरि दुःखी सुखी करुई। सो जीव मूढ है, मोही है, अज्ञानी है। बहुरि ज्ञानी है सो यातें विपरीत है, यात उलटा माने है।
टीका-परजीवनिकू मैं दुःखी करू हूं, बहुरि सुखी करूं हूं, बहुरि परजीव मोकू सुखी " दुःखी करे हैं ऐसा अध्यवसाय है सो निश्चयकरि अज्ञान है। सो यह अज्ञान जाके है सो अज्ञानी + है तातें सो मिथ्यादृष्टि है । बहुरि जाके यह अज्ञान नाही है, सो ज्ञानीपणातें सम्यग्दृष्टि है।
भावार्थ-जाकै ऐसा मान्य है जो में परजीवकू सुखी दुःखी करौं हौं अर मोकू परजीव सुखी दुःखी करे हैं सो यह मानना अज्ञान है, जाकै यह है सो अज्ञानी है, जाके यह नाही सो शानी है; सम्यग्दृष्टि है । आगे पूछे है, यह अध्यवसाय अज्ञान कैसा है ? ताका उत्तर कहे हैं। गाथा
कम्मणिमित्तं सव्वे दुक्खिदमुहिदा हवंति जदि सत्ता। कम्मं च ण देसि तुमं दुक्खिदमुहिदा कह कदा ते ॥१८॥ कम्मणिमित्तं सवे दुक्खिदसुहिदा हवंदि जदि सत्ता। कम्मं च ण देसि तुमं कह तं सुहिदो कदो तेहिं ॥१९॥ कम्मोदयेण जीवा दुक्खिदमुहिदा हवंति जदि सव्वे । कम्मं च ण देसि तुमं कह तं दुहिदो कदो तेहिं ॥२०॥
कर्मनिमित्तं सर्वे दुःखितमुखिता भवंति यदि सत्वाः । कर्म च न ददासि त्वं दुखितसुखिताः कथं कृतास्ते ॥१८॥ कर्मनिमित्तं सर्वे दुःखितमुखिता भवति यदि सत्वाः। कर्म च न ददासि त्वं कथं त्वं सुखितः कृतस्तैः ॥१९॥
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