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कर्मोदयेन जीवा दुःखितमुखिता भवति यदि सर्वे ।
कर्म च न ददासि त्वं कथं त्वं दुखितः कृतस्तैः ॥२०॥ आत्मरूपातिः-सुखदुःखे हि तावज्जीवानां स्वकर्मोदयेनैव तदभावे तयोर्भवितुमशक्यत्वात् । स्वकर्म च नान्येनास्य 5 दातुं शक्यं तस्य स्वपरिणामेनैवोपाय॑माणत्वात् । ततो न कथंचनापि, अन्योन्यस्य सुखदुःखे कुर्यात् । अतः मुखित-卐 - दुःखितान् करोमि । सुखितदुःखितश्च क्रिये चैत्यभ्यवसायो ध्रु वमनानं ।
___अर्थ-जोव हैं ते सर्व ही अपने कर्मके उदय करि दुःखी सुखी होय हैं । जो ऐसे हैं तो - हे भाई ! तिनि जीवनिकू कर्म तो तूं नाहीं दे है। तो ते दुःखी सुखी कैसे किये ? बहुरि जीव हैं।
ते सर्व ही अपने कर्म के उदय करि दुःखी सुखी होय हैं। जो ऐसे हैं, तो हे भाई ! ते जीव तौकून 卐 कर्म तो दे नाही, तिनिने तोकू दुःखी कैसे किया? बहुरि जीव हैं ते सर्व ही अपने कर्मका उदय
करि दुःखी सुखी होय हैं, जो है भाई ! ऐसे हैं तौ ते जीव कर्म तौ तोकू दे नाही, तो तोकू । म तिनित सुखी कैसे किया। ____टीका-सुखदुःख हैं ते प्रथम ही जीवनिके अपने कर्मके उदय हो करि होय हैं । जाते ।।
कर्मके उदयका अभाव होते तिनि सुख दुःखनिका उदय होनेका असमर्थपणा है। बहुरि अपना" 卐 कर्म है सो अन्यकू अन्यकरि देनेकू असमर्थ है, तिस कर्मके अपना परिणामही करि उपजवापना
है। तातें अन्यकै अन्य है सो सुखदुख काहू प्रकार भी नहीं करे है । यातें जाके ऐसाअध्यवसाय है, जो मैं परजीवनिळू सुखी दुःखी करौं हौं, बहुरि परजीवनि करि मैं सुखी दुःखी किया सो यह अध्यवसाय निश्चय करि अज्ञान है।
भावार्थ-जैसा आशय होय तेसा कार्य न होय, सो ऐसा आशय अज्ञान है । सो सर्वजीव卐 15 अपने अपने कर्मके उदय करि सुखी दुःखी होय है, सो जो ऐसे माने में परकू सुखी दुखी करौं ..
" हौं, अर मोकू पर सुखी दुःखी करे हैं, सो यह मानना निश्चयनय करि अज्ञान है अर निमित्त ' नेमित्तिकभाव है ताके आश्रय सुखदुःख करनेवाला कहना सो व्यवहार है, सो निश्चयकी ,