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दुःखी होय नाहीं । यातें मारने जीवावने आदिका अभिप्राय करे सो तौ मिथ्यादृष्टि ही होय, यह निश्चयका वचन है । इहां व्यवहारनय गौण है । याका कलशरूप श्लोक है।
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अनुष्टुप्छन्दः
मिथ्यादृष्टेः स एवास्य बन्धहेतुर्विपर्ययात् । य एवाध्यवसायो ऽयमज्ञानात्माऽस्य दृश्यते ॥८॥
अर्थ - forefer it यह अध्यवसाय है सो अज्ञानरूप प्रत्यक्ष दीखे है, सो ही यह afrore free faपर्ययस्वरूप है तातें बंधका कारण है ।
भावार्थ - झूठा अभिप्राय सो ही मिथ्याल, सो ही बंधका कारण ऐसें जानना । अध्यवसाय बंघका कारण है ऐसें गाथामैं कहे हैं। गाथा
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एसा दुजो मदी दे दुःखिदसुहिदे करेमि सत्तेति । एसा दे मूढमदी सुहासुहं बंदे कम्मं ||२३||
आगे यह
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एषा तु या मतिस्ते दुःखितसुखितान् करोमि सत्वानिति । एषा ते मूढमतिः शुभाशुभं बध्नाति कर्म ॥२३॥
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आत्मख्यातिः - परजीवानहं हिनस्मि न हिनस्मि दुःखयामि सुखयामि इति प एवायमज्ञानमयोऽभ्यवसायो मिथ्यादृष्टेः स एव स्वयं रागादिरूपत्वाचस्य शुभाशुभबंधहेतुः । अथाव्यवसायं बंधहेतुत्वेनावधारयति -
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अर्थ- हे आत्मन् ! तेरी जो यह बुद्धि है जो मैं जीवनिकू सुखी दुःखी करू ं हूं, सो यह तेरी फ मूढबुद्धि है, मोहस्वरूप है। सो यह ही बुद्धि शुभ अर अशुभ कर्मनिकं बांधे है ।
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टीका - परजीवनिक में हणू हूं, दुःखी करूं हूं, सुखी करू ं हूं ऐसा जो यह अज्ञानमय अध्य
वसाय है, सो यह मिथ्यादृष्टिकै होय है । सो ही स्वयं रागादिरूपपणातें तिसके शुभाशुभ 5
बंधका कारण है ।
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