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होते भी अपना सरागवीतरागपरिणामके अभावतें न बंधे हैं न छूटे हैं। बहुरि अपना सराग- .. वीतराग परिणामके सद्भावते तिस तेरे अध्यवसायका अभाव.होते भी बंधे हैं तथा छुटे हैं,
तातें परविर्षे तो यह अकिंचित्कर है-किछू भी करनेवाला नाहीं। तातें यह अध्यवसान स्वार्थ- 5 जक्रियाकारि नाहीं है । तातें मिथ्या ही है, ऐसा भाव है।
भावार्थ-जो हेतु किछू भी न करे ताक अकिंचित्कर कहिये है, सो यह बांधने छोडनेका + अध्यवसानतें परविर्षे किछू भी न किया । जाते याकै नाहीं होते तो जीव अपने सरागवीतराग- .
परिणामकरि बंधमोक्षफू प्राप्त होय । वहरि याकै होते भी जीव अपने सरागवीतराग परिणामके + अभाव होते बंधमोक्षकू नाहीं प्राप्त होय । तातें अध्यवसान परविर्षे अकिंचित्कर है, तात स्वार्थ1- क्रियाकारी नाहीं, मिथ्या है। अब इस अर्थका कलारूप काव्य है तथा अगिले कथनकी " सूचनिका रूप श्लोक है।
अनुष्टप्छन्दः अनेनाभ्यवसायेन निम्फलेन विमोहितः । तत्किञ्चनापि नैचास्ति नात्माऽऽस्मानं करोति यत् ॥६॥ . 5. अर्थ-आत्मा है सो इस निष्फल निरर्थक अध्यवसायकरि मोह्या हुवा आपकू अनेकरूप करे "है। सो ऐसा पदार्थ कोई जगतमें नाहीं है-जिसरूप आपकू नाहीं करें, सर्वहीरूप करे है। 卐 है भावार्थ--यह आत्मा मिथ्या अभिप्रायकरि मूल्या हुवा चतुर्गतिसंसारमें जेती अवस्था हैं,
जेते पदार्थ हैं, तिनि सर्वस्वरूप आपकू भया माने है । अपना शुद्धस्वरूपकू नाहीं पहिचाने है। फ़ आगे इस अर्थकू प्रगटरूप गाथामैं कहे हैं । गाथा--
नीचे लिखी पांच गाथाओंकी आत्मरूपाति संस्कृत और हिन्दी टीका उपलब्ध नहीं है इसलिये नहीं छापी जगई। तात्पर्यवति टीका मिलती है वह छपी है।
कायेण दुक्खवेमिय सत्ते एवं तुजं मदिं कुणसि। सन्वावि एस मिच्छा दुहिदा कम्मेण जदि सत्ता ॥१॥
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