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" च नान्येनान्यस्य दातुं शक्यं तस्य स्वपरिणामेनैव, उपाय॑माणत्वात् । ततो न कथंचनापि अन्योऽन्यस्य जीवितंभ समय कुर्यात् । अतो जीवयामि जीग्ये चेत्यध्यवसायो ध्र वमज्ञानं ।
दुःखसुखकरणाध्यवसायस्यापि, एषैव गतिः
अर्थ-जीव है सो अपनी आयुके उदयकरि जीवे है, ऐसे सर्वज्ञ देव कहे हैं। तहां हे भाई, 15 परजीवकू तू आयूकर्म नाहीदे है, तो तेने तिनि परजीवनिका जीवित कैसा किया ? बहुरि । 1 जीव है सो अपना आयुकर्मके उदयतें जीवे है, ऐसे सर्वज्ञ देव कहे हैं । तहां हे भाई, परजीव卐 1- तोकू आयुकर्म नाहीं दे हैं, तो तिनिने तेरा जीवित केला किया ?
टोका-जीवनिका जीवित है सो अपना आयुकर्म के उदयहीकरि है जो आयुका उदयका 卐 अभाव होय, तौ तिप्त जीवितका होनेका अशययगा है। बहुरि अपना आयुकर्म अन्यके अन्य।
करि देनेका असमर्थपणा है तिस आयुकर्मका अपने परिगामहोकार उपनायवापणा है तातें.अन्य। 卐 है सो अन्यके जीविता कोई प्रकार भी नाहीं करे है । यात परकू में जीवाऊ हौं तथा पर मोकूम
जीवावे हैं ऐसा अध्यवसाय है सो निश्चयकरि अज्ञान है। ___भावार्थ-पूर्व मरणके अध्यवसायमें कह्या सो ही जानना । आगे कहे हैं, जो दुःखसुख के करनेका अध्यवसायको भी याही गति है । गाथा
जो अप्पणादु मरणदि दुःखिदसुखिदे करेमि सत्तेति। सो मूढो अण्णाणी णाणी एत्तोदु विवरीदो ॥१७॥
य आत्मना तु मन्यते दुःखितसुखितान करोमि सत्यानिति ।
समूढोऽझानी ज्ञान्यतस्तु विपरीतः ॥१७॥ ___ आत्मख्याति:-परजीवानहं दुःखितान मुखितांश्च करोमि । परजीवैदुःखितः सुखितश्च क्रिमेह, इल्पव्यवसायो । ध्रुवमझानं । स तु यस्यास्ति सोऽज्ञानित्वान्मिभ्या दृष्टिः । यस्य तु नास्ति स झानित्वाव सम्पद्रष्टिः।
कामव्यवसायोज्ञानमिति चेत
मऊ