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सद्भावतें धर्मका केवल ज्ञाता ही यह ज्ञानी है। आगे ऐसे ही ज्ञानीके अधर्मपरिग्रह नाहीं है , ऐसें कहे हैं। गाथा--
अपरिगहो अणिच्छो भागिदोणाणीय णिच्छदि अहम्म। अपरिग्गहो अधम्मस्स जाणगो तेण सो होदि ॥१९॥
अपरिग्रहोऽनिच्छो भणितो ज्ञानी च नेच्छत्यधर्म ।
अपरिग्रहोऽधर्मस्य ज्ञायकस्तेन स भवति ॥१९।। + आत्मख्यातिः-इच्छा परिग्रहः तस्य परिग्रहो नास्ति यस्येच्छा नास्ति, इच्छा त्वज्ञानमयो धर्मः । अज्ञानमयो भावस्तु ।
शानिनो नास्ति शानिनो झानमय एव भावोऽस्ति । ततो ज्ञानी, अज्ञानमयम्य भावस्य इच्छाया अभावात् अधर्म जनेच्छति, तेन शानिनः अधर्मपरिग्रहो नास्ति ज्ञानमयस्यैकस्य शायकमावस्य भावादधर्मस्य केवलं शायक एवायं स्यात् । -
एवमेव चाधर्मपदपरिवर्तनेन रागद्वपक्रोधमानमायालोभकर्मनोकर्ममनोवचनकायश्रोत्रचक्षुर्घाणरसनस्पर्शनष्त्राणि पोडश । 9 भ्याख्येयानि, अनया दिशाऽन्यान्यप्यूह्यानि ।।
___अर्थ-ज्ञानी इच्छारहित है, यातें परिग्रह रहित कह्या है। याहीते ज्ञानी है सो अधर्म 'नाहीं इच्छे है, तातें अधर्मका परिग्रह याकै नाहीं है। तिस कारणकरि सो ज्ञानी तिस अधर्मका ॥ .. ज्ञायक ही है।
टीका-इच्छा है सो परिग्रह है । जाकै इच्छा नाही ताके परिग्रह नाही। बहरि इच्छा है । सो अज्ञानमय भाव है, अज्ञानमय भाव ज्ञानीकै नाही है, ज्ञानीकै तौ ज्ञानमय ही भाव है। ।।
तातें ज्ञानी अज्ञानमय भाव जो इच्छा ताके अभावतें अधर्म नाही इच्छे है। तातें ज्ञानीके । + अधर्मका परिग्रह नाहीं है। ज्ञानमय जो एक ज्ञायकभाव ताके सद्भावते यह ज्ञानी अधर्मका +
केवल ज्ञायक ही है। ऐसे ही गाथामैं अधर्मपद है, ताके पद पलटनेकरि अर अधर्मकी जायगर 卐 राग द्वेष क्रोध मान माया लोभ कर्म नोकर्म मन वचन काय श्रोत्र चक्षु व्राण रसन स्पर्शन ए 5
सोलह पद धरि सोलह गाथासूत्र करि व्याख्यान करना । इस ही उपदेशकरि अन्य भी विचारने।
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