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ताकरि प्राणीके भय उपजे, सो आकस्मिकभय है। सो आत्माका ज्ञान है सो अविनाशी अनादि - अनंत अचल एक है। सो याविर्षे दुजेका प्रवेश नाही, नवीन अकस्मात् कछू होय नाही, सो 5 ऐसा ज्ञानी आपकू जाने, ताके अकस्मात भय काहे होय ? । तातें ज्ञानी अपना ज्ञानभावकू॥ .. निःशंक निरंतर अनुभवे है। ऐसे सप्त भय ज्ञानीकै नाही हैं । इहां प्रश्न-जो अविरतसम्यग दृष्टि आदिककू भी ज्ञानी कहे हैं, अर तिनिकै भयप्रकृतिका उदय है, ताके निमित्ततें भय भी है
देखिये है। सो ज्ञानी निर्भय कैसा है ? ताका समाधान-जो भयप्रकृतिके उदयके निमित्ततें भय ।।
उपजे है ताकी पीडा न सही जाय है । जातें अंतरायके प्रबल उदयतें निर्बल है, तात तिस" 5 भयका इलाज भी करे है। परंतु ऐसा भय नाही-जाकरि स्वरूपका ज्ञान श्रद्धानतें चिगि जाय। म
बहुरि भय उपजे है सो मोहकर्मको भयनामा प्रकृतिका उदयका दोष है, ताका आप स्वामी होय,
कर्ता न बने है ज्ञाता ही है। आगे कहे हैं, सम्यग्दृष्टीकै निशंकितादि चिन्ह हैं, ते कर्मकी निर्जराज E करे हैं। शंकादिक करि किया बंध नाहीं होय है । ताको सूचनिकाका काव्य है।
मन्दाक्रान्ताछन्दः टोत्कीर्णस्वरसनिचितशानसर्वस्वभाजः सम्यग्दृष्टयदिह सकलं नन्ति लक्ष्माणि कर्म ।
तत्तस्यास्मिन्पुनरपि मनाककर्मणो नास्ति बन्धः पूर्वापाचं तदनुभवतो निश्चितं निर्जरैव ॥२६॥ + अर्थ-जातें सम्यग्दृष्टिके निःशंकित आदि चिन्ह हैं ते समस्तकर्मकू हणे हैं-निर्जरा करे हैं।" __ तातें फेरि भी इसका उदय होते नवीन कर्मका किञ्चिन्मात्र भी बंध नाही होय है। तिस 卐 कर्मका पहले बंध भया था, ताके उदयकू भोगवता संताकै ताकी नियम करि निर्जरा हो होय है। म .. कैसा है सम्यग्दृष्टि ? टंकोत्कीर्णवत् एक स्वभावरूप जो अपना निजरस, तिसकरि परिपूर्ण भया .. का जो ज्ञान, ताका सर्वस्वका भोगनहारा है-आस्वादक है।
भावार्थ-सम्यग्दृष्टि पहलै भयादिप्रकृति बांधी थी ताका उदयकू भोगवे है, तोऊ ताके नि:. ॥ शंकितादि गुण प्रवर्ते हैं, ते पूर्वकर्मकी निर्जरा करे हैं । अर शंकादिक करि कीया बंध नाहीं होय 卐
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