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आत्मरुवातिः - परजीवानहं हिनस्मि परजीवैर्हि स्पे चाहमित्यध्यवसायो ध वमज्ञानं स तु यस्यास्ति सोऽज्ञानत्वामिध्यादृष्टिः । यस्य तु नास्ति स झानित्वात्सम्यग्दृष्टिः । मयमभ्यवसायोऽज्ञानं ? इति वेद
यो मन्यते हिनस्मि हिंस्ये च परैः सत्वे । स मूढोऽज्ञानी ज्ञान्यतस्तु विपरीतः ॥ ११ ॥
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अर्थ- जो पुरुष ऐसें माने है, मैं परजीवकू हणं हूं, मारूं हूं, बहुरि परजीवनिक रि में हण्या जाऊ' हूं, पर मोकू मारे है, सो पुरुष मूह है, मोही है, अज्ञानी है । बहुरि ज्ञानी यातें विपरीत है, ऐसें नाहीं माने हैं ।
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श्री प्रसूत
टीका - परजीवनिकूं मैं हणू हूं । बहुरि परजीवनिकरि मैं हण्या जाऊ हूं। ऐसा अध्यवसाय कहिये निश्चयरूप जाका आशय है, सो निश्चयतें अज्ञान है । सो ऐसा अध्यवसाय जाऊँ होय फ्र सो अज्ञानी है । इस अज्ञानीपणातें मिथ्यादृष्टि है । बहुरि जाकै ऐसा आशयरूप अज्ञान नाहीं है सो ज्ञानीपणातें सम्यग्दृष्टि है ।
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भावार्थ-जाकै ऐसा आशय है "जो परजीवकूं मैं मारू ं हूं, अर पर मेरेतांई मारे हैं" सो फ 5 ऐसा आशय अज्ञान है । तातें सो अज्ञानी मिथ्यादृष्टि है । अर जाके यह आशय नाहीं, सो ज्ञानी है, सम्यग्दृष्टि है। यहां ऐसा जानना - जो निश्चयनयकरि कर्ताका स्वरूप यह है, जो आप 5 स्वाधीन जिस भावरूप परिणमै ताकूं तिस भावका कुर्ता कहिये । सो परमार्थकरि कोऊ काहूके 5 मरण करे नहीं है। जो परकरि परका मरण माने है, तो अज्ञानी है। निमित्तनैमित्तिकभावतें कर्ता कहना व्यवहारनयका वचन है, सो यथार्थ मानना सम्यग्ज्ञान है। आगे पूछे है, यह अध्यवसाय अज्ञान कैसा है ? ताका उत्तररूप गाथा कहे हैं। गाथा
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