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अर्थ - तथापि कहिये लोक आदि कारणनितें बंघ का नाहीं अर रागादिकहीते बंध कया,
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तौऊ ज्ञानीनि निरर्गल कहिये मर्यादरहित स्वच्छंद प्रवर्तना योग्य न कया है । जाते निरर्गल प्रा
प्रवर्तना है सो बंधका ही ठिकाना है, ज्ञानीनिकै विनावांछा कर्म कार्य होय है, सो बंधका कारण का है, जातें जानें भी है अर कर्मकूं करें भी है, यह दोऊ क्रिया कहां विरोधरूप नाहीं है ? फ करना अर जानना तौ निश्चयतें विरोधरूप ही है।
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भावार्थ- पहली काव्य में लोक आदि बंधके कारण न कहें तहां ऐसें मति जानिये - जो माह्मव्यवहारप्रवृत्ति बंधके कारणनिमें सर्वथा ही निषेघी है, जो ज्ञानीनिकै अबुद्धिपूर्वक वांछा 5
विना प्रवृत्ति होय है, तातें बंध न कया है । तातें ज्ञानीनिकं स्वच्छंद प्रवर्तना तौ न कझा है,
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मर्याद प्रवर्तना तौ संघका ही ठिकाना है । जाननेमें अर करनेमें सौ विरोध है, ज्ञाता रहेगा फ्र
கழபிழபிமிமிமிமிபிகககழி
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15 तौ बंधन होगा, कर्ता होगा तो बंध होयहोगा । अब कहे हैं जो जाने है सो करे नाहीं है अर जो करे है सो जाने नाही है, जो करे है सो कर्मका राग है अर राग है सो अज्ञान है अर अज्ञान है सो बंधका कारण है । ऐसें काव्यमें कहे हैं।
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वसन्ततिलका छन्दः
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जानाति यः स न करोति करोति यस्तु जानात्ययं न खलु तत्किल कर्मरागः । रागं त्वबोधमयमव्यवसायमाहुमिध्यादृशः स नियतं स हि बन्धहेतुः ॥ ५ ॥
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अर्थ- जो जाने है, सो करे नाहीं है। बहुरि जो करे है, सो जाने नाही है। बहुरि जो
करे है, सो निश्चय यह कर्मराग है बहुरि जो राग है, ताकू मुनि हैं ते अज्ञानमय अध्यवसाय
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कहे हैं। सो यह मिथ्यादृष्टीके होय है, सो नियमतें बंघका कारण है । अब मिथ्यादृष्टिका फ
आशयकूं गाथा मैं प्रगटकरि कहे हैं। गाथा
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जो मरादि हिंसामि य हिंसिज्जामि य परेहिं सत्तेहिं ।
सो मूढो अण्णाणी णाणी एत्तोदु विवरीदो ॥११॥
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