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शार्दूलविक्रीडितच्छन्दः प्राणोच्छेदमुदाहरन्ति मरणं प्राणाः किलास्यात्मनो ज्ञानं तत्स्वपमेय शाश्वततया नो डिघते जातुचित् ।
तस्यातो मरणं न किञ्चन भवेत्तीः कुतो शानिनो निशंकः सततं स्वयं त सहजं ज्ञानं सदा विन्दति ॥२७॥ मप्र ____ अर्थ-ज्ञानी विचारे है, जो प्राणनिका उच्छेद होना, तिसकूँ भरण कहे हैं। सो आत्माका "ज्ञान है सो निश्चयकरि प्राण है सो ज्ञान है सो स्वयमेव शाश्वता है, यात याका कदाचित् भी , 卐 उच्छेद नाहीं होय है। याते तिस आत्माके मरण किछ भी नाहीं है सो ज्ञानीकै ऐसे विचारतें .. तिस मरणका भय काहेतें होय ? तातें सो ज्ञानी निशंक भया संता, निरंतर अपना स्वाभाविक h ज्ञानभावकू आप सदा अनुभवे है।
भावार्थ-इंद्रियादिक प्राण विनसें ताकू लोक मरण कहे हैं। सो आत्माकै इद्रियादिक प्राण परमार्थस्वरूप नाही निश्चयकरि ज्ञान प्राण है, सो अविनाशी है, ताका विनाश नाही । तातें ॥ आत्माकै मरण नाहीं यातें ज्ञानीकै मरणका भय नाहीं। यात ज्ञानी अपना ज्ञानस्वरूपकू निःशंक भया संता निरंतर आप अनुभवे है । अब आकस्मिक भयका काव्य है।
शालविक्रीडितच्छन्दः एकं ज्ञानमनाउनन्तमचलं सिद्ध किलतरस्वतो यावत्तावदिदं सदैव हि भवेन्नात्र द्वितीयोदयः । 卐 तन्नाकस्मिकमत्र किश्चन भवेत्तीः कुतो ज्ञानिनो निःशंकः सततं स्वयं स सहज ज्ञानं सदा विन्दति ।।२८॥
अर्थ-ज्ञानी विचार है जो ज्ञान है सो एक है, अनादि है, अनंत है, अचल है, सो यह " आपहीतें सिद्ध है । सो जेसे है तेते सदा सो ही है, याविषे दूजेका उदय नाहीं है, तातें ॥ जयाविर्षे अकस्मात् नवा किछू उपजे ऐसा किछू भी नाहीं है। ऐसे विचारतें तिस अकस्मात् ....
होनेका भय काहे होय ? नाही होय है । यातें सो ज्ञानी निःशंक भया संता निरंतर अपना ॥ स्वाभाविक ज्ञानस्वभावकू सदा अनुभवे है
भावार्थ-जो कबहु अनुभवमें न आया ऐसा किछू अकस्मात प्रगट हुवा भयानक पदार्थ, "