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भावार्थ-जो इस भवमें लोकनिका डर होय, जो यह लोक मेरा न जानिये कहा बिगाढ - 9 करेगा ! सो ऐसा तो इह लोकका भय है । बहुरि परभवमें न जानिये, कहा होयगा? ऐसा भय ॥
रहे सो परलोकका भय है । सो ज्ञानी ऐसें जाने-जो मेरा लोक तौ चैतन्यस्वरूपमात्र एक नित्य ..
है, यह सर्वकै प्रगट है । बहुरि इस लोक सिवाय है सो परलोक है; सो मेरा लोक तौ काहका 卐 विगाडया विगडे नाहीं । ऐसे विचारता ज्ञानी आपकू स्वाभाविक ज्ञानरूप अनुभवे, ताकै इस .. लोकका भय काहेतें होय ? कदाचित् न होय । अव वेदनाका भयका काव्य है।
शार्दूलविक्रीडितछंदः एकैव हि वेदना पदचलं ज्ञानं स्वयं वेद्यते निभेदोदितवेद्यवेदकवलादेकं सदानाकुलः। __ नैवान्यागतवेदनैव हि भवेत्तद्भीः कुतो ज्ञानिनो निःशः सततं स्वयं स सहजं ज्ञानं सदा विन्दति ॥२४॥
अर्थ-ज्ञानी पुरुषनिके याही एक बेदना है जो निराकुल होय करि अपना एक ज्ञानस्वरूप - आप अपना ज्ञानभावही वेदने योग्य है अर आपही वेदनेवाला ऐसा अभेदस्वरूप वेद्यवेदकभावके चलते निरन्तर निश्चल वेदिये है-अनुभवन कीजिये है। बहुरि ज्ञानीकै अन्यतें आई ऐसीवेदना .. ही नाही है ताते तिसकै तिस वेदनाका भय काहे होय ? नाही होय । यातें ज्ञानी निर्शक । भया संता अपना स्वाभाविक ज्ञानभावक सदा निरन्तर अनुभव है।
भावार्थ-वेदना नाम सुखदुःखका भोगनेका है सो ज्ञानीकै एक अपना ज्ञानमात्रस्वरूपका भोगना ही है। यह अन्यकरि आईकू वेदना ही नाहीं जाने है। तातें अन्यागतवेदनाका भय ॥ + नाहीं है । तासे सदा निर्भय भया ज्ञानका अनुभवन करे है । अव अरक्षाका भयका काव्य है।
शालविक्रीडितच्छन्दः यत्सम्राशमुपैति यन्न नियतं व्यक्तं ति वस्तुस्थितिओनं सत्स्वयमेव तत्किल ततस्त्रातं किमस्वापरैः। अस्यात्राणमतो न किंचन भवेत्तभीः कुतो ज्ञानिनो निःशंकः सततं स्वयं स सहजं ज्ञानं मदा बिन्दति ॥२५॥ अर्थ-ज्ञानी ऐसे विचारे है, जो सत्स्वरूप वस्तु है, सो नाशकू प्राप्त नाहीं होय है, यह
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