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5 ताकरि प्राणीकै भय उपजे, सो आकस्कि है । तो
ज्ञान है सो अविनाशी अनादि
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अनंत अचल एक है । सो याविषै दुजेका प्रवेश नाही, नवीन अकस्मात् कछू होय नाही, सो ऐसा ज्ञानी आपकूं जाने, ताकै अकस्मात भय काहेतें होय ? । तातें ज्ञानी अपना ज्ञानभावकूं 5 निःशंक निरंतर अनुभव है। ऐसे सप्त भय ज्ञानोके नाहीं हैं । इहां प्रश्न — जो अविरतसम्यफष्ट आदि भी ज्ञानी कहे हैं, अर तिनिकै भयप्रकृतिका उदय है, ताके निमित्त
भी
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देखिये है । सो ज्ञानी निर्भय कैसा है ? ताका समाधान जो भयप्रकृतिके उदयके निमित्त भय
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उपजे है ताकी पीड़ा न सही जाय है । जातें अंतरायके प्रवल उदयतें निर्बल है, तातें तिस
15 भयका इलाज भी करे है। परंतु ऐसा भय नाही - जाकरि स्वरूपका ज्ञान श्रद्धानतें चिगि जाय । 5
बहुरि भय उज्जे है सो मोहकर्मको भयनामा प्रकृतिका उदयका दोष है, ताका आप स्वामी होय,
कर्ता बने है ज्ञाता ही है। आगे कहे हैं, सम्यष्टी निःशंकितादि चिन्ह हैं, ते कर्मकी निर्जरा
करे हैं
| शंकादिक कर किया बंध नाहीं होय है । ताकी सूचनिकाका काव्य है ।
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अर्थ - जातें सम्यग्दृष्टि के निःशंकित आदि चिन्ह हैं ते समस्त कर्मकूं हणे हैं-निर्जरा करे हैं। 5
तातें फेरि भी इसका उदय होतें नवीन कर्मका किञ्चिन्मात्र भी बंघ नाही होय है | free
5 कर्मका पहले बंध भया था, ताके उदयकूं भोगवता संताकै ताकी नियमकरि निर्जरा ही होय है। कैसा है सम्यग्दृष्टि ? टंकोत्कीर्णवत् एक स्वभावरूप जो अपना निजरल, तिसकरि परिपूर्ण भया 5 जो ज्ञान, ताका सर्वस्वका भोगनहारा है-आस्वादक है।
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मन्दाक्रान्ताछन्दः
टक्ङ्कोत्कीर्णस्वरसनिचितज्ञानसर्वस्वभाजः सम्यग्दृष्टेर्यदिह सकलं मन्ति लक्ष्माणि कर्म | तस्यास्मिन्पुनरपि मनाक्कर्मणां नास्ति बन्धः पूर्वोपात्तं तदनुभवतो निश्चितं निर्जव ॥ २६ ॥
भावार्थ-सम्यष्टि पहलै भयादिप्रकृति बांधी थी ताका उदयकूं भोगवे हैं, तौऊ ताके निःशंकितिादि गुण प्रवतें हैं, ते पूर्वकर्मकी निर्जरा करे हैं । अर शंकादिक करि कोया बंध नाहीं होय
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