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समय
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निर्जराका प्रवेश भया था सो अपना स्वरूप प्रगट दिखाय निकसि गया । इहां ताई गाथा भई कलश १६२ भये। ऐसे समयसार नाम ग्रंथकी आत्मख्याति नाम टीकाकी वचनिकाविर्षे
सहा निसरा अभिकार पूर्ण भया ॥६॥
सवैया तेईसा सम्यकवंत महंत सदा समभाव रहे दुख संकट आये। कर्म नवीन बंधे न तचै अर पूरव बंध बडे विन माये ।। पूरण अङ्ग सुदर्शनरूप धरै निति मान पटै निज पाये । यों शिवमारग साधि निरंतर आनंदरूप निजातम थाये ॥१॥
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अथ बंधाधिकारः। ज दोहा-गादिकतें कर्मको बंध जानि मुनिराय । तबै तिनहि समभाव करि नमू सदा तिनि पाय ॥१॥
आत्मख्यातिः-अथ प्रविशति बंधः। 卐 अब टीकाकारके वचन हैं, जो अब बंध प्रवेश करे है । जैसे नृत्यके अखाडेमैं स्वांग प्रवेश
करे है, तैसें रंगभूमिमैं बंधतत्त्वका स्वांग प्रवेश करे है। तहां प्रथम ही सर्व तत्त्वका यथार्थ जान卐 नेवाला जो सम्यग्ज्ञान, सो बंधक दूरि करता संता प्रगट होय है ऐसे अर्थकू ले मंगलरूप काव्य फ़ कहे हैं।
शार्दूलविक्रीडितच्छन्दः। रागोद्गारमहारसेन सकलं कृत्वा प्रमत्त जगत् क्रीडन्तं रसभावनिर्भरमहानाटयं न पन्धं धुनत् । आनन्दामृतनित्यभोजि सहजावस्था स्फुटं नाटयडीरोदारमनाकुलं निरुपधिज्ञानं समुन्मजति ॥१॥
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