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जो कर्मयोग्य पुद्गलनितें भरथा लोक तथा मन वचन कायके योग तथा अनेक कारण तथा चेतन अचेतनका घात ये बंधके कारण नाहीं हैं। जो इनितें बंध होय, तौ सिद्धनिके तथा यथास्यात्तचारित्रवाक तथा केवलज्ञानीनिकै तथा समितिरूप प्रवर्तते मुनिनिकै बंघका प्रसंग आ है, अर तिनिके बंध है नाहीं, तातें यह हेतुमैं व्यभिचार भया । तातें बंधका कारण रागादिक ही हैं यह निश्चय है । इहां समितिरूप प्रवर्तनेवाले मुनिका नाम तौ लिया अर अविरत देश5 विरतका नाम न लिया। सो इनिके बाह्यसमितिरूप प्रवृत्ति नाहीं । तातें चारित्रमोहसंबंधी रागतें 5 किंचित बंध होय है, तातें सर्वथा बंधके अभावकी अपेक्षामैं इनिका नाम न लिया, सो अंतरंग अपेक्षा 5 ये भी निर्गन्ध ही जानने । आगे इस अर्थका कलशरूप काव्य है ।
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पृथ्वीछन्दः
न कर्मबहुलं जगन्न चलनात्मकं कर्मवाननेककरणानि वा न चिदचिवधो न बन्धकृत् । पदमुपयोगः समुपाति रामादिभिः स एव किल केवलं भवति बन्धहेतुर्नृणाम् ||२|| अर्थ---कर्मबंधका करनेवाला कर्मयोग्य पुद्गलनिकरि बहुत भरथा जो जगत् कहिये लोक सो
कारण नाहीं है । बहुरि चलनेस्वरूप जे कायवचनमनकी क्रिया कर्मरूप योग, ते भी कारण नाहीं
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हैं । बहुरि अनेक रीतिके करण, ते भी कारण नाहीं हैं । बहरि चेतन अचेतनका वध कहिये घात 卐
5 सो भी कारण नाहीं है । तौ कहा है ? जो उपयोगभू कहिये आत्मा, सो रागादिकनिकरि सहित एकताका भाव प्राप्त होय है, सो ही एक पुरुषनिकै बंधका कारण है ।
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5 नाहीं होय है, तातें साकै पूर्वोक्त वेशतें बंध नाहीं होय हैं ऐसें कहे हैं। गाथा
जह पुण सो चेव णरो गोहे सव्वा अवणिये संते । रेणुबहुलम्म ठाणे करेदि सत्थेहि वायामं ॥ ६ ॥
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भावार्थ - इहां निश्चयनयकरि एक रागादिकहीकूं बंधका कारण कया है । आगे सम्यग्दृष्टि फ
उपयोगविषै रागादिककूं नाहीं करे है, उपयोगके अर रागादिकके भेद जानि रागादिकका स्वामी
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