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है। अब इस कथनकूं गाथामै कहे हैं। यहां प्रथम ही निःशंकित अंगकी गाथा - जो चत्तारिवि पाए छिंददि ते कम्ममोहबाधकरे । सो सिंको चेदा सम्मादिट्टी मुगोदव्वो ॥३७॥ यश्चतुरोपि पादान् छिनन्ति तान् कर्ममोहबाधाकरान् । स निशंकश्चेतयिता सम्यग्दृष्टिर्ज्ञातव्यः ||३७||
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आत्मख्यातिः --- यतो हि सम्बन्दष्टिः, टंकोरकीर्णे कज्ञापकभावमयत्वेन कर्मजं धर्मकाकर मिध्यात्वादिभावाभावानिशंक:, ततोऽस्य शंकाकृतो नास्ति बंधः । किं तु निर्जरेंव |
अर्थ - जो आत्मा कर्म के वंघका कारण जो मोह, ताके च्यारि पाय, तिनिकूं निःशंक भया संता काटे है, सो आत्मा
करनेवाले मिथ्यात्वादि भावरूप 5 निःशंक सम्यग्दृष्टि जानना । 卐
टीका - जातें सम्यग्दृष्टि है सो टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकभावमय है, तिस भावकरि कर्मबंधका 5 कारण शंकाके करनेवाले ऐसे मिथ्यात्व अविरति कषाय योग ए च्यारि भाव, तिनिका याकै अभाव है, तातें निःशंक है, तातें याकै शंकाकरि किया हुवा बंध नाहीं है । तौ कहा है ? निर्जरा फ्र ही है। भावार्थ- सम्यग्दृष्टि कर्म उदय आवे है ताका आप स्वामीपणाका अभावतें कर्ता न होय है । तातें भयप्रकृतिका उदय आवर्त भी शंकाका अभावतें स्वरूपतें च्युत नाहीं होय है, निःशंक है । तातें याकै शंकाकृत बंध नाहीं होय है, कर्म रस दे खिरि जाय है । आगें निष्कांक्षित गुणकी फ
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गाथा है
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जो ण करेदि दु कंखं कम्मफले तहय सव्वधम्मेसु ।
सो णिक्कखो चेदा सम्मादिठ्ठी मुणेदव्वो ॥ ३८ ॥
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