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विद्यारथमारूढः मनोरथरयान् हंति यश्चेतयिता । स जिनज्ञानप्रभावी सम्यग्दृष्टिर्ज्ञातव्यः ॥४४॥ आत्मख्यातिः – यतो हि सम्यग्दृष्टिष्टकोत्कीर्णे कज्ञानभावमयत्वेन ज्ञानस्य समस्तशक्तिप्रबोधेन प्रभावजननात्प्रभा- प्रामृव वनकरः ततोस्य ज्ञानप्रभावनाकर्षकृतो नास्ति बंधः किं तु निर्जव |
अर्थ — जो जीव विद्यारूप रथविर्षे चढ्या मनरूप जो रथ चलनेका मार्ग, ताविषै भ्रमे है, 5 सो जिनेश्वरका ज्ञानका प्रभावना करनेवाला सम्यग्दृष्टि जानना ।
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टांका - जाते जो निश्चय कारे सम्यग्दृष्टि है, सो टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायक भावमयपणा करि क ज्ञानकी समस्तशक्ति का फैलावने करि प्रभावके उपजावनेत प्रभावना करनेवाला है । तातें या 5 ज्ञानकी प्रभावनाका अप्रकर्ष कहिये वधावना नाहीं, ताकरि किया बंध नाहीं होय है । तौ कहा है ? निर्जरा ही है ।
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भावार्थ -- प्रभावना नाम उद्योत करना प्रगट करना इत्यादिकका है, सो जो अपना ज्ञानकुं निरंतर अभ्यास करि प्रगट करे बधावे, ताकै प्रभावना अंग होय है । ताकै अप्रभावनाकृत कर्मका बंध नाही है, कर्म रस दे खिरि जाय है । तातें निर्जरा ही है । इहां गाथामें ऐसें कथा -जो 5 विद्यारूपी रथविषे आत्माकूं थापि भ्रमे, सो ज्ञानकी प्रभावनायुक्त सम्यग्दृष्टि है । सो यह निश्चय प्रभावना है । जैसे व्यवहार करि जिनबिम्बकू रथविषे स्थापि नगर वन आदि विषै भ्रमाय प्रभावना करे, तैसे जानना । ऐसें सम्यग्दृष्टिज्ञानीकै निःशंकित आदिक आठ गुण कर्मकी निर्जके कारण कहे। ऐसे ही और भी सम्यक्त्वके गुण निर्जराके कारण जानना । बहुरि इहां निश्चयन्यप्रधान कथन है, तातैं आत्माहीके परिणाम निःशंकारूप आदिक करि 卐 कहे । ताका संक्षेप ऐसा जो सम्यग्दृष्टि आत्मा अपना ज्ञान अद्धानवियें निःशंक होय भयके निमि5 रातें स्वरूपतें चिगे नाहीं अथवा सन्देहयुक्त न होय, तार्के निःशंकित गुण कहिये ॥१॥ बहुरि जो फ्र कर्मका फलकी वांछा न करें तथा अन्य वस्तुके धर्मनिकी वांछा न करें, ताकै निष्कांक्षितगुण होय
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