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सम्मादिट्टी जीवा णिस्संका होति णिमया तेण । सत्तभयविप्पमका जह्मा तह्या दु णिस्संका ॥३६॥
सम्यग्दृष्टयो जीवा निश्शङ्का भवन्ति निर्भयास्तेन ।
सप्तभयविषमुक्ता यस्मात्तस्मात्तु निश्शाङ्का ॥३६॥ आत्मख्याति:-येन नित्यमेव सम्यग्दृष्टयः सकलकमनिरमिलापाः संतः, अत्यन्तकर्मनिरपेक्षतया वर्तते तेन ननमेते, अत्यन्त निश्शङ्कदारुणाध्यवसायाः संतोऽत्यंतनिर्भया: संभाम्यते । ___अर्थ-सम्यग्दृष्टि जीव हैं ते निशङ्कह ोय हैं, तिस कारण करि निर्भय होय हैं । गातें । सप्तभय करि रहित होय हैं, तातें निःशंक होय हैं।
टीका-जाकारण करि सम्यग्दृष्टि हैं ते नित्य ही समस्त कर्म के फलकी अभिलाषा रहित भये संते कर्मकी अपेक्षातें सर्वथा रहितपणा करि वर्ते हैं, ताकारण करि निश्चयतें अत्यन्त निःशंक दारुण उत्कट तीव्र निश्चयरूप दृढ आशयरूप भये संते अत्यन्त निर्भय हैं। ऐसे संभावना कीजिये हैं । अब सप्त भयके कलशरूप काव्य कहे हैं। तहां इस लोकका अर परलोकका ए दोय भय है, ताकी एक काव्य है।
शार्दूलविक्रीडितच्छन्दः लोकः शाश्वत एक एप सकलव्यक्तो विविक्तात्मनः चिल्लोकं स्वयमेव मेवलमयं यल्लोफयत्येककः ।
लोकोऽयं न तवापरस्तय परस्तस्यास्ति तद्भीः कुतो निश्शंकं सततं स्वयं स सहज ज्ञानं सदा विन्दति ॥२३॥ ___ अर्थ-यह भिन्न आत्माका चैतन्यस्वरूप लोक है सो शाश्वत है, एक है, सकलजीवनिकै प्रगट 卐 है, जाकू यह ज्ञानी आत्मा ही स्वयमेव एकाकी केवल अवलोकन करे है । तहां ज्ञानी ऐसे विचारे .. है, जो यह चैतन्यलोक है, सो तेरा है बहुरि तिसतै अन्य लोक है सो परलोक है, तेरा नाहीं।"
ऐसा विचारता तिस ज्ञानीके इस लोक अर परलोकका भय काहेते होय ? नाही होय । ताते 1 सो ज्ञानी है सो निःशंक भया संता निरंतर आपकू स्वाभाविक ज्ञानस्वरूप अनुभव है।
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