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१. नियमते वस्तुकी मर्यादा है। बहुरि ज्ञान है सो आप सत्स्वरूप वस्तु है, ताका निश्चयकरि भन्यमय । करि कहा राख्या ? तात तिस ज्ञानके अरक्षा करनेस्वरूप किछू भी नहीं है। ताते तिस २ अरक्षाका भय ज्ञानीक काहेरौं होय ? नाहीं होय है। ज्ञानी तो अपना स्वाभाविक ज्ञानस्वरूपकू
निःशंक भया संता सदा आप अनुभवै है। 卐 भावार्थ-ज्ञानी ऐसें जाने है, जो सत्तारूप वस्तूका कदाचित् नाश नाहीं अर ज्ञान आप .. सत्तास्वरूप है। दो शाका शिछू लेसा माहीं है.. जाफी रक्षा किये रहे; नातरि नष्ट होय जाय । जतातें ज्ञानीके अरक्षाका भय नाही, निशंक भया संता आप स्वाभाविक अपना ज्ञानकू सदा 1अनुभवे है । अब अगुप्तिभयका काव्य है।
शार्दूलविक्रीडितच्छन्दः प स्वं रूपं किल वस्तुनोऽस्ति परमा गुप्तिः स्वरूपे न यच्छक्तः कोऽपि परप्रथेष्टुमकृतं ज्ञानं स्वरूपं च नुः।
__ अस्यागुप्तिरतो न काचन भवेचीः कुतो शानिनो निःशंकः सततं वयं स सहज ब्रानं सदा विन्दति ॥२६॥ 卐 . अर्थ-ज्ञानी विचारे है, जो वस्तूका निजरूप है सो ही परमगुप्ति है। सो ताविर्षे पर है । .. सो कोई भी प्रवेश करनेकू समर्थ नाही है। बहुरि ज्ञान है सो पुरुषका स्वरूप है सो अकृत्रिम 卐 है, यातें या अगुप्ति किछु भी नाही है। ता तिन अगुप्तिका भय ज्ञानीक नाही है। 1- याहीते ज्ञानी निःशंक भया संता निरंतर आप स्वाभाविक अपना ज्ञानभावकू सदा अनुभव है। । भावार्थ-गुप्ति नाम जामैं काहूका प्रवेश नाहीं ऐसा गढ़ दुर्गादिकका है। तहां यह ॥ र प्राणी निर्भय होय वसै । ऐसा गुप्त प्रदेश न होय चौडा होय ता अगुप्ति कहिये । तहां बैठे " प्राणीकै भय उपजे । तहां ज्ञानी ऐसा जाने है, जो वस्तूका निजस्वरूप है, तामै परमार्थकार दूजे म + वस्तूका प्रवेश नाही, यह ही परमगुप्ति है । सो पुरुषका स्वरूप ज्ञान है । तामै काइका प्रवेश
नाहीं तातें ज्ञानीका काहेतें भय होय ? स्वाभाविक ज्ञानस्वरूपकू निःशंक भया संता निरंतर + अनुभवे है । अब मरणभयका काव्य है।
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