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विन्नासीक क्षणिक हैं। तहां विचारिये है, जो वेदकभाव है सो आगामी वांछामें लेनेयोग्य वेद्यभाव ता अनुभवन करे । यहू जेतें उपजे तेतें वेद्यभाव नष्ट होय जाय
- विनसि जाय । ताकू
विनाश होतें वेदकमाव है सो कौन देदे - अनुभवन करें ? बहुरि जो इहां ऐसे कहिये, जो वांछा मैं 5 आवता जो वेद्यभाव ताके पीछे होगा जो अन्य वेद्यभाव ताकूं बेड़े है । तौ तिसके होनेके पहले ही सो वेदकभाव विसि जाय, तब तिस वेद्यभावकूं कौन वेदे ? बहुरि फेरि कहे, जो वेदकभावके पीछे होगा जो अन्य वेदकभाव सो तिस वेद्यभावकुं वेदेगा ।
तिस वेदकभाव होनेके 卐
पहले सो वेद्यभाव विनसि जाय, तब सो वेदकभाव कौनसे भावकूं वेदे ? ऐसे कांक्षमाणभाव जो वेदनाको वांछामें आवता भाव, तार्के अनवस्था है, कहूं ठहरना नाहीं । तिस अनवस्थाकूं जानता संता ज्ञानी किद्दू भी नाहीं वांछे है।
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भावार्थ-वेदकभाव तो वेदनेवाला अर वेद्यभाव जाकूं वेदिए सो इनि दोऊके कालभेद है। 5 जब वेदकभाव होय तत्र वेद्यभाव होय नाहीं अर वेद्यभाव होय तब वेदकभाव होय नाहीं । ऐसें होतें वेदकभाव आवै तब वेद्यभाव विनसि जाय, तब वेदकभाव कोनकूं वेदे ? अर वेद्यभाव आवे 5 तब वेदकभाव विनसि जाय, तब वेदकभाव विना वेद्यकू कौन वेदे ? तातै ज्ञानी दोऊकूं विनाशीक जाणि आप जाननेवाला ही रहे है । इहां प्रश्न - जो आत्मा तौ नित्य है, सो दोऊ भाव- 卐 निकूं वेदनेवाला क्यौं न कहो ? ताका समाधान - जे वेद्यवेदकभाव तो विभाव हैं, आत्माका स्वभाव तो हैं नाहीं, सो जाकी वांछा करी ऐसा वेद्यभाव जेतें वेदकभाव आया तेर्ते नष्ट होय गया । ऐसें वांछितभोग तो भया ही नाहीं । तातें ज्ञानी निष्फल वांछा काहेकुं करे ? मनोवांछित फ होय नाही, तब वांछा करना अज्ञान है। अब इस अर्थका कलशरूप काव्य कहे हैं ।
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स्वागताछन्दः वेद्यवेदक विभावचलत्वाद्वद्यते न खलु काङ्क्षितमेव ।
तेन काङ्क्षति न किञ्चन विद्वान्द्र सर्वतोऽप्यतिविरक्तिमुपैति ॥ १५ ॥
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