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" काल सो ही शंख परद्रव्या भोगता संता होऊ अथवा न भोगता संता होऊ अपना श्वेतभावकू _+ छोडि आपही कृष्भावस्वरूप परिणाम, सिस काल तिस शंखका श्वेतभाव अपना ही किया
कृष्णभावस्वरूप होय । तैसा ही सोही ज्ञानी परद्रव्य भोगता संता होऊ तथा न भोगता ।। ॥६॥ संता होऊ जिस काल अपना ज्ञानकू छोडि स्वयमेव आप ही अज्ञान करि परिणमै, तिस काल -
याका ज्ञान अपना ही किया निश्चय करि अज्ञानरूप होय है। तातें ज्ञानीके परका किया बंधन । नाहीं, आपही अज्ञानी होय तब अपनो अपराधके निमित्ततें बंध होय है।
भावार्थ-जैसा शंख श्वेत है, सो परके भक्षणेत तौ काला होय नाहीं। जब आप ही कालिमारूप परिणमै, तब काला होय । तैसा ही ज्ञानी उपभोग करता तो अज्ञानी होय नाहीं। जब + आपही अज्ञानरूप परिणमै तब अज्ञानी होय, तब बंध करे है। याका कलशरूप काव्य कहे हैं।
शार्दूलविक्रीडितच्छन्दः करिं स्वफलेन यत्किल वलात्कमैव नो योजयेत् कुर्वाणः फललिप्सुरेव हि फलं प्राप्नोति यत्कर्मणः । ज्ञानं संस्तदपास्तरागरचनो नो बध्यते कर्मणा कुर्वाणोऽपि हि कर्म तत्फलपरित्यागेकशीलो मुनिः ॥२०॥ अर्थ-निश्चय करि यह जानू-जो कर्म है सो अपने करनेवाले कर्ताकू अपना फल करि " वरजोरीत तौ नाही जोडे है । सो मेरा फलकू तू भोगि । जो कर्मकू करता संता तिस फलका के इच्छुक हुवा करे है, सोही तिस कर्मका फल पावे है । तातें ज्ञानरूप हुवा संता कर्मविर्षे दूरी भया। है रागकी रचना जाकी ऐसा मुनि है, सो कर्म करता संता भी, कर्मकरि नाही बंधे है । जाते ॥
कैसा है यह मुनि ? तिस कर्म के फलका परित्यागरूप ही एक स्वभाव जाका। 9 भावार्थ-कर्म तो कर्ताकू जबरीतें अपना फलते जोडे नाहीं । अर जो कर्मकू करता संता, 7 + ताका फलकी इच्छा करे, सोही ताका फल पाये है। तातें जो ज्ञानी ज्ञानरूप हुवा प्रवर्ते अर । । कर्मके करने विर्षे राग न करै अर तिसका फलको आगामो इच्छा न करे, सो मुनि कर्मकार बंधे ।
नाहीं है। आगे इस अर्थकू दृष्टांतकरि दृढ करे हैं। गाथा
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