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र अर्थ-जैसें इस लोकमें कोई पुरुष आजीविका निमिस राजाकू सेवे, तौ सो राजा भी ताकूर " सुखके उपजावनहारे अनेक प्रकारके भोगनिकू दे है । ऐसे ही जीवनामा पुरुष सुखके निमित्त ॥ कर्मरूप रजकू सेवे, तौ सो कर्म भी ताकू सुखके उपजावनहारे अनेक प्रकारके भोगनिकूदे है। :- बहुरि जैसे सो ही पुरुष आजीविकानिमित्त राजाकून सेवे, तौ सो राजा भी ताकू सुखके उप
5 जावनहारे अनेक प्रकारके भोग नाहीं दे है। ऐसे ही सम्यग्दृष्टि है सो कर्मरूप रजकू विषयनिके प 1- अर्थ नाहीं लेवे है, तो सो कर्म भी ताकू सुखके उपजावनहारे नाना प्रकारके भोग नाहीं दे है। "
" टीका-जैसे कोई पुरुष फलके अर्थि राजाकू सेवे है, तातें राजा ताकू फल दे है। तैसें ॥ + जीव है सो फलके अर्थ कमकू सेव है, तात सो कर्म ताकू फल दे है। बहुरि जैसे सो ही पुरुष
फलके अर्थ राजाकू नाहीं सेवे है, तातें सो राजा ताकू फल नाहीं दे है। तैसें सम्यग्दृष्टि फलके म 卐 अर्थि कर्मकू नाहीं सेवे है, तातै सो कर्म ताकू फल नाहीं दे है, ऐसा तात्पर्य है।
भावार्थ-फलकी वांछा करि कर्म करे, ताका फल पावे, बांछाविना कर्म करे, ताका फल न पावें। अब इहां आशंका उपजी है-जो फलकी वांछाविना कर्म काहेकू करें ? ऐसी आशंका दुरि . करनेकू काव्य कहे हैं।
शालविक्रीडितच्छन्दः त्यक्त' येन फलं स कर्म कुरुते नेति प्रतीमो वयं किन्त्वस्यापि कृतोऽपि किश्चिदपि तत्कर्मावशेनापतेत् । तस्मिन्नापतिते त्वकम्परमज्ञानस्वभावे स्थितो शानी किं कुरुतेऽथ किं न कुरुते कर्मेति जानाति कः ॥२॥ ॥
अर्थ-जाने कर्मका फल तो छोड्या अर कर्मकू करे है यह तो हम नाहीं प्रतीतिरूप करे हैं, .... परन्तु यामें किछु विशेष है-जो या ज्ञानीकै भी कोई कारणते किछु सो कर्म याके केशविना + आय पडे है, ताकू आय पडते संते भी यह ज्ञानी निश्चल परमज्ञानस्वभावकेविर्षे तिष्ठ्या किछू भी कर्म करे है कि नाहीं करे है यह कौन जाने ?
भावार्थ-ज्ञानीकै परक्शतें कर्म आय पडे है, ताविर्षे भी ज्ञानी ज्ञानतें चलायमान न होय ॥
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