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... सोनाके काई लागै नाही', जातें सुवर्णका स्वभाव कर्दमका लेप न लागनेस्वरूप ही है, तैसें प्रगट- " प्रयपणे ज्ञानी कर्मके वीचि पड्या है तौऊ कर्मकार लिप नाहीं, जाते ज्ञानी सर्व परद्रव्यगत रागका ए
- त्यागका स्वभावपणाकू होते संते कर्मका लेपरूप स्वभाव नाहीं हैं। बहुरि जैसे लोह है सो " "कर्दममध्य पड्या हुवा कर्दमकरि लिपे है, जातें लोहका स्वभाव कर्दमतें लिपनेहीरूप है, तैसें ही है + प्रगटपणे अज्ञानी है सो कर्मक वोचि पड्या संता कर्मकरि लिये है, जातें अज्ञानी सर्वपरद्रव्य
विर्षे कीया जो राग ताका उपादानस्वभाव होते संते तिस कर्म लिपनेका स्वभावस्वरूप है। 9 भावार्थ-जैसे कादामें पड्या सुवर्णकै काई न लागे, अर लोहके कोई लागे । तैसें ज्ञानी ... कर्मके मध्यगत है, तौऊ ज्ञानी कर्मत लिप नाहीं-बांधे नाहीं। अर अज्ञानी कर्मत लिपै है-बांधे ॥
है। यह ज्ञान अज्ञानका महिमा है। अब इस अर्थका तथा अगिले कथनकी सूचनिकाका कलशरूप काव्य कहे हैं।
शार्दूलविक्रीडितच्छन्दः यादृक् तागिहास्ति तस्य कशतो यस्य स्वभावो हि यः कर्तु नैप कथंचनापि हि परैरन्यादृशः शक्यते । ___अज्ञानं न कथंचनापि हि भवेत् ज्ञानं भवत्सन्ततं ज्ञानिन् सुंश्व परापराधजनितो नास्तीह बन्धस्तव ॥१८॥ म 卐 अर्थ-जिस वस्तुका जैसा इस लोकमें जो स्वभाव है, ताका तैसा ही स्वाधीनपणा है, यह + __ निश्चय है । सो तिस स्वभावकू अन्य कोऊ अन्य सारिखा किया चाहै, तो कदाचित् ह अन्यसा. जरिखा करि सके नाहीं। इस न्यायतें ज्ञान है सो निरन्तर ज्ञानस्वरूप ही होय है । ज्ञानका अज्ञान ॥ .. कदाचित् भी होय नाहीं है, यह निश्चय है । ताते हे ज्ञानी ! तू कर्मके उदयजनित उपभोग
भोगि । तेरै परकै अपराध करि उपज्या ऐसा इस लोकमें बंध नाहीं है। ... भावार्थ-वस्तु स्वभाव मेटनेकू कोई समर्थ नाहीं, तातें ज्ञान भये पीछे ताकू अज्ञान करनेकू "कोई समर्थ नाहीं, यह निश्चयनय है । तातें ज्ञानीकू कया है, जो तेरे परके किये अपरा तें तो प्रबंध नाहीं है, तो तू उपभोगकू भोगि । उपभोगनिके भोगनेकी शंका मति करे । शंका करेगा तो
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