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शार्दूलविक्रीडितच्छन्दः एकं ज्ञायकभावनिर्भरमहास्वाद समासादयन् स्वाद द्वन्द्वमयं विधातुमसहः स्वां वस्तुवृत्ति विदन ॥
आत्मात्मानुभवानुभावविवशो अश्यद्विशेपोदयं सामान्यं कलयन् किलैप सकलं ज्ञानं नयत्येकताम् ॥८॥ अर्थ-यह आत्मा है सो ज्ञानके विशेषनिका उदयकू गौण करता संता सामान्यज्ञानमात्र अभ्यास करता संता समस्तज्ञानक एक भावकू प्राप्त करे है। कैसा भया संता ? सो कहे हैं, एक ज्ञायकमात्र भावकार भरथा जो ज्ञानका महास्वाद ताकू लेता संता है। बहुरि कैसा है ? द्वंद्वमय जो वर्णादिक रागादिक तथा क्षायोपशमरूप ज्ञानके भेदरूप स्वाद, ताहि करनेवू लेने असमर्थ है, ज्ञान ही में एकाग्र होय तव दूजा स्वाद नाहीं आवे । बहुरि कैसा है ? अपनी जो वस्तूकी प्रवृत्ति ताहि जानता है, आस्वाद करता है। जातें कैसा है ? आत्माका जो अनुभव.5 आस्वाद, ताके प्रभाव करि विवश है, तिसही स्वादके आधीन है-तहांत :चिगनेकू: असमर्थ है। अद्वितीय स्वाद लेता बाहरि काहेकू आवै । ___भावार्थ-इस एक स्वरूपज्ञानके रसीले स्वाद आगै अन्य रस फीके हैं । अर भेदभाव-सब मिटि जाय हैं। ज्ञानके विशेष ज्ञेयके निमित्ततें हैं। सो जब ज्ञानसामान्यका स्वाद ले तब सर्व- शानके भेद भी गौण होय जाय हैं। एक ज्ञान ही शेयरूप होय है। इहां कोई पूछे, छयस्थक पूर्णरूप केवलज्ञानका स्वाद कैसा आवै ? ताका उत्तर तौ पूर्व कथन शुद्धनयका किया तहां हो .. भया । जो शुद्धनय आत्माका शुख पूर्णरूप जनावे है, सो इस नयके द्वारे पूर्णरूप केवलज्ञानका का परोक्ष स्वाद आवे है ऐसें जानना । आगै इस ही अर्थरूप गाथा कहे हैं। जो कर्मके क्षयोपशमके निमिसते ज्ञानमें भेद हैं । जब ज्ञानस्वरूप विचारिये, तब एक ही है ॥ गाथा
आभिणिसुदोहिमणकेवलं च तं होदि एकमेव पदं। सो एसो परमट्टो जं लहिदुं णिन्वुदि जादि ॥१२॥
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