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प्राप्त होऊ । ऐले यि ही आसालि रन, शात्यायि संतुष्ट, आत्मावि तृप्त जो तू, ताके "ऐसे निरंतर होने लगता हो वचनके अगोचर नित्य उत्तम सुख होयगा । तिस सुखकूतिस ही 卐 काल स्वयमेव ही देखेगा । अन्यकू मति पूछ, यह सुख आपके अनुभवगोचर ही है, परकू काहेदूं
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5 भावार्थ-ज्ञानमात्र आत्माविर्षे लीन होना याहीते संतुष्ट रहना याहीते तृप्त होना यह ॥ - परमध्यान है, याहीते वर्तमान आनन्दरूप होय है, अर लगता हो सम्पूर्ण ज्ञानानंदस्वरूप केवल "ज्ञानकी प्राप्ति होय है। इस सुखकू ऐसे करनेवाला ही जाने है। अन्यका यामैं प्रवेश नाहीं। 5 卐 अब इसकी महिमाकू अगिले कथनकी सूचनारूप कलशरूप काव्य कहे हैं।
उपजातिच्छन्दः अचिन्त्यशक्तिः स्ववमेव देवश्चिमात्रचिन्तामणिरेव यस्मात् ।
सर्वार्थसिद्धात्मतया विधचे शानी किमन्यस्य परिग्रहेण ॥१२॥
कुतो ज्ञानी न परं गृह्णाति इति थेव+ अर्थ-जाते यह चैतन्यमात्र ही है चिन्तामणि जाके ऐसा ज्ञानी है। तो स्वयमेव आप देव "है। कैसा है ? अचिन्त्य कहिये काहूके चितवनमें न आवै ऐसी है शक्ति जामें । सो ऐसा ज्ञानी 卐 सर्व प्रयोजन जाके सिद्ध हैं। ऐसे स्वरूप भया अन्यके परिग्रह करि कहा करे ? किछू ही फ़ ... करना नहीं। + भावार्थ-यह ज्ञानमूर्ति आत्मा अनंतशक्तिका धारक वांछित कार्यकी सिद्धि करनेवाला आप जही देव है । तातें सर्व प्रयोजनके सिद्धपणाकरि ज्ञानीके अन्य परिग्रहके सेवनेकरि कहा साध्य +
है ! यह निश्चयनयका उपदेश जानू । आगे पूछे हैं, जो ज्ञानी परकू काहेते नाही परिग्रहण 卐 करे है ? ताका उत्तर कहे है। गाथा
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