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भावार्यसकलकर्मकू छुडाय ज्ञानका अभ्यास करनेका उपदेश किया है। बहुरि ज्ञानकी म 15 कला कहनेकरि ऐसा सूचे है, जो जेतें पूर्णकला प्रगट न होय, तेते ज्ञान है सो हीनकलास्वरूप "है-मतिज्ञानादिरूप है । तिस ज्ञानकी कलाके अभ्यासतें पूर्णकला जो केवलज्ञान संपूर्णकला सो प्राभूत म प्रगट होय है । आगै फेरि इस ही उपदेशकू प्रगट विशेषकर कहे हैं । गाथा
एदहमि रदो णिचं संतुट्ठो होहि णिच्चमेदमि । एदेण होहि तित्तो तो होहदि उत्तमं सोक्खं ॥१४॥
एतस्मिन रतो नित्यं संतुष्टो भव नित्यमेतस्मिन् ।
एतेन भव तृप्तः तर्हि भविष्यति तवोत्तमं सौख्यं ॥१४॥ आत्मख्यातिः--एतावानेव सत्य आत्मा यावदेतज्ज्ञानमिति निश्चित्य ज्ञानमात्र एव नित्यमेव रतिमुपैहि । 9 एतावत्येव सत्याशीः, यावदेतज्ज्ञानमिति निश्चित्य झानमात्रेणेव नित्यमेव संतोषमुपैहि । एतावदेव सत्यमनुभवनीयं + ... यावदेव ज्ञानमिति निश्चित्य ज्ञानमात्रेणैव नित्यमेव तृप्तिमुपैहि । अथैवं तव तन्नित्यमेवात्मरतस्य, आत्मसंतुष्टस्य, + आत्महप्तस्य च वाचामगोचरं सौख्यं भविष्यति । तत्तु तत्क्षण एव त्वमेव स्ववमेव द्रक्ष्यसि मा अन्यान् प्राक्षीः। ॥ । अर्थ-भो भव्य प्राणी ! तू इस ज्ञानविर्षे नित्य सदाकाल रत होउ-रुचिरूप लीन होऊ ।
बहुरि इसही विर्षे नित्य संतुष्ट होऊ, अन्य किछू कल्याणकारी है नाहीं । बहुरि इसही विर्षे तृप्त । प होऊ अन्य किछू चाहि रहे नाहों ऐसा अनुभव करि । ऐसे किये तेरे उत्तम सुख होयगा।
टीका--हे भव्य ! एतावन्मात्र ही सत्य परमार्थस्वरूप आत्मा है, जेता यह ज्ञान है। ऐसा फ़ निश्चय करिके ज्ञानमात्र ही आत्मावि निरंतर रति प्रीति रुचिकू प्राप्त होऊ । बहुरि एतावन्मात्र ॥ .. ही सत्यार्थ कल्याण है, जेता यह ज्ञान है। ऐसा निश्चय करिके ज्ञानमात्र ही आत्माकर नित्य
ही संतोष प्राप्त होऊ, नित्य ही तृप्तिकू प्राप्त होऊ । बहुरि पतावन्मात्र ही सत्यार्थ अनुभवन , - करने योग्य है, जेता यह ज्ञान है, ऐसा निश्चय करिके ज्ञानमात्र ही आत्माकरि नित्य ही तृप्तिरज
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