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को ग्राम भणिज्ज हो परदव्वं मममिदं हवदि दव्वं । अप्पाणमप्पणी परिग्गहं तु णियदं वियाणंतो ॥ १५ ॥ को नाम भद् बुधः परद्रव्यं ममेदं भवति द्रव्यं । आत्मानमात्मनः परिग्रहं तु नियतं विजानन् ॥१५॥
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आत्मख्यातिः - यतो हि ज्ञानी योहि यस्य स्वो भावः स तस्य स्त्रः सतस्य स्वामीति खरतरतच्चवष्टंभात्, आत्मानमात्मनः परिग्रहं तु नियमेन जानाति । ततो न ममेदं स्वं नाहमस्य स्वामी इति परद्रव्यं न परिगृहाति । 卐 अतोहमपि न तत्परिगृह्णामि ।
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अर्थ - ज्ञानी पंडित है सो ऐसा कौन है ? जो यह परद्रव्य है सो मेरा द्रव्य है ऐसे कहे। 5 ज्ञानी तौ न कहे। कैसा है ज्ञानी पंडित ? अपना आत्मा हीकूं नियमकरि अपना परिग्रह जानता 卐 卐 संता प्रवर्ते है ।
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टीका - जातें जो ज्ञानी है सो नियमकरि ऐसे जाने है जो जाका स्वभाव है, सोही ताका फ
स्व है, धन है, द्रव्य है । वहुरि तिसही स्वभावरूप द्रव्यका वह स्वामी है । ऐसें सूक्ष्म तीक्ष्ण 卐 卐 तदृष्टिरि अवलंबतें, आत्माका परिग्रह अपना आत्मस्वभाव ही है ऐसें जाने है । तातें पर
15 द्रव्यकूं ऐसा जाने है जो यह मेरा स्व नाही, मैं याका स्वामी नाही, यातें परद्रव्यकूं अपना क
परिग्रह नाहीं करे । तातें मैं भी ज्ञानी हौं । सो परद्रव्यकूं नाहीं ग्रहण करो हौं ।
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भावार्थ - लोकमें यह रीति है, जो समझवार स्थाणा मनुष्य है, सो परकी वस्तुकं अपनी
नाही जाने, ताकूं ग्रहण करे नाहीं । तैसे ही परमार्थ ज्ञानी अपना स्वभावहीकूं अपना धन जाने, 卐 卐 परका भावकू अपना जाने नाही, ताकू ग्रहण न करे है। ऐसा ज्ञानी है सो परका ग्रहण सेवन 45 नाही करे है। आगे इसही अर्थ युक्तिकरि दृढ करे हैं। गाथा