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" केई तिस आत्माके स्वभावरहित हैं, ते अनियत कहिये अनिश्चित अवस्था रूप हैं, अनेक हैं, क्षणिक । 卐 हैं, व्यभिचारी हैं, ऐसे भाव हैं ते सर्व ही आप अस्थायी हैं, ठहरनेका जिनिका स्वभाव नाहीं।
तातें तिष्ठनेवाला आत्मा, ताके तिष्ठनेका ठिकाना स्थान होनेकू योग्य नाहीं ताते ते अपदभूत के हैं। बहुरि जो भाव आत्मस्वभावकरि तौ ग्रहणमें आवे है, बहुरि नियतावस्था है, सदा निश्चित ॥ - रहे है, बहुरि एक है, बहुरि नित्य है, बहुरि अव्यभिचारी है ऐसा एक चैतन्यमात्र ज्ञानभाव है। ..
सो आप स्थायीभावस्वरूप है, सदा विद्यमान पाइये है, सो तिष्ठनेवाला जो आत्मा ताका 4. तिष्ठनेका स्थान होनेकू योग्य है, ताते यह भाव पदभूत है। ताते सर्व ही जे अस्थायीभाव तिनि- -
कू छोडिकरि स्थायीभूत परमार्थ रसपणाकरि स्वादमें आवता यह ज्ञान है सो ही एक आस्वादने 卐 योग्य है।
भावार्थ-पूर्व वर्णादिक गुणस्थानान्त भाव कहे थे, ते तो सर्व ही आत्मावि अनियत अनेक क्षणिक व्यभिचारी ऐसे भाव हैं, ते आत्माके पद नाहीं । बहुरि यह स्वसंवेदन स्वरूप ज्ञान है म सो नियत है, एक है, नित्य है, अव्यभिचारी है, स्थायीभाव है सो आत्माका पद है, सो ज्ञानो- निकरि यह ही एक स्वाद लेनेयोग्य है । अब इस अर्थका कलशरूप श्लोक कहे हैं।
एकमेव हि तत्स्वाद्यं विपदामपदं पदम् । अपदान्येव भासन्ते पदान्यन्यानि यत्पुरः ॥८॥
अर्थ-सी ही एक पद आस्वादने योग्य है । कैसा है ? विपद जो आपदा तिनिका पद नाहीं॥ .. है, जिस पदमें किछू भी आपदा प्रवेश नाहीं करे है। जाके आगे अन्य सर्व ही पद हैं ते अपद .. प्रतिभासे हैं।
भावार्थ-एक ज्ञान ही आत्माका पद है, यामैं किछू भी आपदा नाही, याके आगे अन्य " सर्व ही पद आपदास्वरूप आकुलतामय अपद भासे हैं । फेरि कहे हैं, जो आत्मा ज्ञानका अनुभव । 45 करे है, तब ऐसे करे है
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