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आत्माका परमार्थस्वरूप जान्या नाहीं । कर्मोदयजन्ति भावकूं भला जान्या । तिसतें उत्पना
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समय मोक्ष होना मान्या । ऐसें मानते अज्ञानी ही है। आपका परका परमार्थरूपकूं न जान्या । तब 5 जानिये जीव अजीव पदार्थका भी परमार्थरूप न जान्या । तब जो जीव अजीवकूं ही न जान्या, सब काका सम्यग्दृष्टि ऐसें जानना । अब इस अर्थका कलशरूप काव्य कहे हैं। तामेँ जे रागी 卐 5 प्राणी अनादितें रागादिककू अपना पद जाने हैं, सिन्हि उपदेश करे हैं।
मन्दाक्रान्ताछन्दः
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आसंसारात्प्रतिपदममी रागिणो नित्यमचाः सुप्ता यस्मिन्नपदमपदं तद्धि बुध्यध्वमन्वाः ।
एतैतः पदमिदमिदं यत्र चैतन्यधातुः शुद्धः शुद्धः स्त्ररसभरतः स्थायिभावत्वमेति || ६ ||
किं तत्पदम् ?
अर्थ संसारी भव्यप्राणीकूं श्रीगुरु संबोधे है। जो हे अंधे प्राणी हौ, ए रागी पुरुष हैं, ते
अनादि संसार लगाय जिस पदविष सोते हैं-निद्रामैं मग्न हैं, तिस पदकूं तुम अपद जानो अपद 5 जानो, यह तुमारा ठिकाना नाहीं । इहां दोय वारंवार कहनेतें अतिकरुणाभाव सूचे है । फेरि कहे हैं जो तुमारा ठिकाना यह है यह है। जहां चैतन्य धातु शुद्ध है शुद्ध है । अपने स्वाभा 15 विकरसके समूहतें स्थायीभावपणाकू प्राप्त है । इहां दोय शुद्धपद हैं, सो द्रव्य अर भाव दोऊकी शुद्धता अर्थ हैं । सो सर्व अन्यद्रव्यनित न्यारा, सो तौ द्रव्यशुद्धता है । अर परनिमित्ततें भये 5 अपने भाव तिति रहित भाव शुद्ध कहिये । सो इतः कहिये इस तरफ आवो इस तरफ आवो15 इहां निवास करौ ।
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भावार्थ - प्राणी अनादि संसारत लगाय रागादिककूं भला जाणि, तिनिहीकूं अपना स्वभाव मानि, तिनिहीविषै निश्चित तिष्ठे हैं-सोवे हैं । तिनिकं श्री गुरु दयालु होय संबोधे —जगावे है- सावधान करे है। जो हे अंधे प्राणी हो, तुम जिस पदवियें सोचौ हौ, सो
पद नाही है, सारा पद तौ चैतन्यस्वरूपमय है, तिसकूं प्राप्त होऊ, ऐसें सावधान करे है।