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卐 प्रवर्ते है । बहुरि जिसकाल आत्मा, आत्माका अर कर्मका भेदविज्ञान करि शुद्ध चैतन्यचमत्कार ॥ 1- मात्र आत्माकू पावे है तिसकाल मिथ्याव अज्ञान अविरति योगस्वरूप अध्यवसान आसव
भावके कारण हैं, तिनिका आत्माकै अभाव होय है । अर मिथ्यात्व आदिका अभाव होते राग प्रमुख
द्वेष मोहरूप आसवभावका अभाव होय है, अर राग द्वेष मोहका अभाव होते नोकर्मका अभाव - होय है, अर नोकर्मका अभाव होते संसारका अभाव होय है । ऐसा यह संवरका अनुक्रम है।
भावार्थ-जीवके जेते आत्माका अर कर्मका एकपणेका आशय है-भेदविज्ञान नाही, तेते ।। .. मिथ्यात्व अज्ञान अविरत योगरूप अध्यवसान विद्यमान हैं । तिनितें रागद्वेषमोहरूप आस्वभाव
होय है, आसवभावतें कर्म बंधे है, कर्मत नोकर्म शरीरादिक प्रगट होय हैं, नोकर्मत संसार है। बहुरि जिसकाल आत्माका अर कर्मका भेदविज्ञान होय है, तब शुद्ध आत्माकी प्राप्ति होय है,
तब मिथ्यात्वादि अध्यवसानका अभाव होय है, अर अध्यवसानका अभाव भये राग द्वेष मोहरूप 卐 + आसवका अभाव होय है, आसूबके अभावतें कर्म नाहीं बंधे है, अर कर्म के अभावतें नोकर्म
नाहीं प्रगटे है, नोकर्म के अभावतें संसारका अभाव होय है, ऐसा संवरका अनुक्म जानना। 5 अब, इस संवरका कारण प्रथम ही भेदविज्ञान कया, ताकी भावनाका उपदेश करे हैं। ताका कलशरूप काव्य कहे हैं।
उपजातिच्छन्दः सम्पद्यते संकर एष साक्षाच्छुद्धात्मतत्वस्य किलोपलम्भात् ।
स मेदविज्ञानत एव तस्मात्तद्भ दविज्ञानमतीय भाव्यम् ।।शा अर्थ-जातें यह संवर है सो निश्चयतें साक्षात् शुद्धात्मतत्त्वका उपलंभ कहिये पावनेतें होय है। बहुरि शुद्धात्मतत्त्वका उपलम्भ है, सो आत्मा अर कर्मका भेद विज्ञानते होय हे-कर्म• अर 卐 आत्माकू न्यारे जाने तब आत्माकू अनुभवे । तातें सो भेद विज्ञान अतिशय करि भावने योग्य है।
फेरि कहे हैं; जो, भेद विज्ञान कहां ताई भावना ?
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