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___ अर्थ सम्यग्दृष्टि से जाने है, जो राग है सो पुद्गलकर्म है, ताका विपाकका उदय है, + प मेरे अनुभवमें रागरूप प्रीतिरूप आस्वाद होय है, सो है, सो यह मेरा भाव नाहीं है। जातें -
" निश्चयकरि मैं तो एक ज्ञायकभावस्वरूप हौं । 卐 टीका-निश्चयकरि राग नामा पुद्गलकर्म है, तिस पुद्गलकर्म के उदयके विपाककरि निपज्या 4
यह प्रत्यक्ष अनुभवगोचर रागरूप भाव है, सो यह मेरा स्वभाव नाहीं है, मैं तौ टंकोत्को एक + ज्ञायकभावस्वरूप हौं । ऐसें सम्यग्दृष्टि विशेषकर आपापरकू जाने है । इहां गाथामै परभावका ॥
नीचे लिखी एक गाथाकी आत्मख्याति संस्कृत और हिन्दो टीका उपलब्ध नहीं है इसलिये नहीं छापी गई । तात्पर्यत्ति टीका मिलती है वह छपी है ।
कह एस तुज्झ ण हवदि विविहो कम्मोदयफलविवागो। परदव्वाणुवओगो णदु देहो हवदि अण्णाणी ॥
कथमेष तव न भवति विविधः कर्मोदयफलविपाकः ।
परद्रव्याणामुपयोगो न तु देहो भवति अज्ञानी।। तात्पर्यवृत्तिः-कह एस तुम ण हवदि विविहो कम्मोदयफलविवागो कथसेप विविधकर्मोदयफलयिपाकस्तवरूपं । + न भवतीति केनापि पृष्टः तत्रोसरं ददाति परदवाणुवओगो निर्विकारपरमाहादैकलक्षणस्वशुद्धात्मद्रव्यात्प्रथग्भूतानि है
परद्रयाणि यानि कर्माणि जीवे लनानि तिष्ठन्ति तेषामुपयोग उदयोयं, औपाधिकस्फटिकस्य परीपाधिवत् । न केवलं " 9 भावक्रोधादि ममस्वरूपं न भवति, इति णदु देहो हबदि अग्गाणो देहोऽपि मम स्वरूपं न भवति हु स्कुट कस्मादिति ॥
चेत् , अज्ञानी जडस्वरूपो यतः कारणात् , अहं पुनः, अनन्तनानादिगुणस्वरूप इति । म अर्थ-किसीने सम्यग्दृष्टीसे प्रश्न किया कि-यह जो नाना कर्मों के उदयसे फलविपाक होता है 5
यह तेरा स्वरूप क्यों नहीं है तो उसका उत्तर यह है कि निर्विकार परमाह्लाद स्वरूप शुद्ध ..
आत्महत्यसें वे कर्मविपाक भिन्न हैं इसलिये वे मेरे स्वरूप नहीं है। यह ही नहीं किंतु यह जो " - मेरा केह-शरीर है वह भी अज्ञानी होनेके कारण ज्ञानस्वरूपी मुझसे सर्वथा भिन्न है।
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