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आगामी बंध न भया तब केवल निर्जरा ही भई । तातें सम्यग्दृष्टि विरागीका भोगोपभोग निर्जरा." आप का ही निमित्त कहा । अर पूर्वकर्म उदय माय ताका द्रव्य क्षरि गया सो द्रव्यनिर्जरा है। आगे भावनिर्जराका स्वरूप कहे हैं। गाथा
दव्वे उपभुजंते णियमा जायदि सुहं च दुक्खं च । ते सुहदुःखमुदिण्णं वेददि अह णिज्जरं जादि ॥२॥
द्रव्ये, उपभुज्यमाने नियमाजायते मुखं च दुःखं च ।
तत्सुखदुःखमुदीर्ण वेदयते अथ निरां याति ॥२॥ 卐 आत्मख्याति:--उपभुज्यमाने सति हि परद्रव्ये तन्निमितः सातासातविकल्पानतिक्रमणेन वेदनायाः सुखरूपो दुःखरूपी
वा नियमादेव जीवस्य भाव उदेति । स तु यदा वेद्यते तदा मिथ्यादृष्टं रागादिभावाना सद्भावेन बंधनिमित्तं भूत्वा 5 निर्यमाणोप्यजीर्णः सन् बंध एव स्यात् । सम्यग्दृप्टेस्तु रागादिभावाभावेन बंधनिमित्तमभूत्वा केवलमेव निर्जीयमाणो __ प्यजीर्णः सन्निर्जरैव स्यात् ।।
अर्थ-परद्रव्य उपभोगमें आवते संते भोगते संते सुख अथवा दुःख नियमते उपजे है। तिस प्र 1- उदव आया सुखदुःखकू वेदे है, अनुभवे है, भोगवे है, आस्वादमें आवे है । सो आस्वाद देकरि ग क्षरि जाय है, निर्जरा होय चुक्या गया, सो फेरि नाहीं आवे है। प्र टीका-परद्रव्य उपभोगमें आवता संता भोगक्ता संता जीवके सुखरूप अथवा दुःखरूप
भाव नियम थकी उदय होय है, उपजे है। कैसा है यह भाव ? परद्रव्य है, निमित्त जाकू ऐसा 卐 है। जाते वेदनाके साता तथा असाता ऐसे दोय ही रूपपणो है, इनि दोऊभावकू नाही उल्लंघ्य .. वर्ते है, सो इस भावकू जिसकाल जीवकरि वेदिये है, तिसकाल मिथ्यादृष्टीके तो तिसते रागादि
भावनिका सद्भावकरि आगामी कर्मके बंधके निमित्त होयकरि निर्जरारूप होता भी निर्जरारूप नाहीं कहिये, आगामी बंधकरि निर्जरारूप भया, तातें बंध ही कहिये। बहुरि सम्यग्दृष्टीके तिस
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