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संवतोविय सेवाद असेवमाणोवि सेवग कोवि ।
पगरणचेट्ठा कस्सवि णयपायरणोत्ति सो होदि ॥५॥ सेवमानोऽपि न सेवते, असेवमानोऽपि सेवकः कश्चित् । प्रकरणचेष्टा कस्यापि न च प्राकरण इति सा भवति ॥५॥
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5 भावानामभावेन विषयसेवनफलस्वामित्वाभावादसेवक एव । मिथ्यादृष्टिस्तु विषयानसेवमानोऽपि रागादिभावानां सद्भा- 5 dr विषयसेवनफलस्वामित्वात्सेवकः ।
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आत्मख्यातिः - यथा कश्चित् प्रकरणे व्याप्रियमाणोपि प्रकरणस्वामित्वाभावात् न प्राकरणिकः । अपरस्तु तत्रा
व्याप्रियमाणोऽपि तत्स्वामित्वात्प्राकरणिकः । तथा सम्यग्दृष्टिः पूर्वकर्मोदयसंपन्नान् विषयान् सेवमानोऽपि रागादि
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अर्थ-कोई तो विषयनि सेवता संता भी है, तौऊ भी न सेवे है, ऐसा कहिये है । बहुरि 5
कोई नाहीं सेवता संता है, तौऊ सेवनहारा है, ऐसा कहिये है। जैसे कोई पुरुषके कोई कार्य
संबंध
है, तिस प्रकरणसंबंधी सर्व क्रिया करे है, तौऊ किसीका कराया करे 5
5 है, आप तिसका स्वामी नाहीं है, ताकूं प्राकरण कहिये कार्यका करनेवाला है, ऐसा न कहिये ।
टीका - जैसे कोई पुरुष किसी कार्यका प्रकरणक्रियाविषै व्यापाररूप होय प्रवतें है, तिस5 संबंधी सर्व किया करे हैं, तौऊ तिस कार्यका प्रकरणका स्वामी कोई और है, ताका कराया करे 5 है । तातें प्रकरणका स्वामीपणाका अभाव प्राकरणिक कहिये करणवाला नाहीं है । बहुरि अन्य कोई तिस प्रकरणविषै व्यापाररूप प्रवर्तता नाही है, तिस कार्यसंबंधी क्रिया नाही करे है,
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तौऊ तिकार्यका स्वामीपणा प्राकरणिक कहिये तिस प्रकरणका करनेवाला कहिये है । तैसे ही
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सम्यग्दृष्टि है सो पूर्वी साचे थे जे कर्म, तिनिका उदयकरि व्याप्त भये जे इंद्रियनिके विषय तिनिकुं
5 सेवता संता है, तौऊ रागादिक भावनिके अभावकरि विषयसेवनका फलका स्वामीपणाका
अभावतें सेवनेवाला नाही है । बहुरि मिथ्यादृष्टि है सो विषयनिकूं नाही सेवता संता भी रागा
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