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5 है। बहुरि रागादिकतें नाही मिल्या भाव है सो अपने स्वभावका प्रगट करनेवाला है । सो केवल जाननेवाला ही है। सो नवीनकर्मका किंचिन्मात्र भी बंध करनेवाला नाही है । भावार्थ - रागादिकके मिलापतें भया अज्ञानमय भाव है सो ही बंध करनेवाला है । बहुरि रागादिक नाहीं मिया ऐसा ज्ञानमय भाव है, सो बंधका करनेवाला नाहीं है, यह नियम 卐 आगे रागादिकर्ते मिल्या नाही ऐसा ज्ञानमय भावका संभवना दिखावे हैं। गाथापक्के फलम्मि पडदे जह ण फलं वज्झदे पुणो विंटे । जीवस कम्मभावे पडदे ण पुणोदय मुवेहि ॥५॥
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पके फले पतिते यथा न फलं वध्यने पुनवृन्ते । जीवस्य कर्मभाव पतिते न पुनरुदयमुपैति ॥ ५ ॥
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आत्मख्यातिः - यथा खलु पक्वं फलं वृन्तात्सक द्विविलष्ट सत्, न पुनर्वृन्तसंबंधमुपैति तथा कर्मोदयजो भावो जीवभावात्सकृद्विश्लिष्टः सन्, न पुनर्जीवभावमुपैति । एवं ज्ञानमयो रागाद्यसंकीणों भावः संभवति । अर्थ - जैसे वृक्ष तथा बेलि फल पकी करि पडे वीटलू क्षरि जाय सो वह फल फेरि फ वीटसू बंधे नाहीं, तैसें जीवविषै पुद्गलकर्म भावरूप था, सौ पचिकरि छडि गया, निर्जरा होय गई, सो कर्म फेरि नाहीं उदय होय हैं ।
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भावार्थ - कर्म की निर्जरा भये पीछे वह कर्म फेरि उदय नाही आवे, तब ज्ञानमय ही भाव रह्या । ऐसें जब जीवका मिथ्यात्वकर्म अनंतानुबंधी सहित सत्त्वमेसू क्षय होय जाय, तब फेरि
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टीका - जैसे निश्चयकरि यह प्रगट है, जो वोटसू पाका फल एक वार क्षरि पडथा सो वह फल फेरि वीट संबंधरूप नाहीं होय है। तैसें कर्मका उदयसूं निवज्या जो जीवका भाव सो फ एकवार जीवभाव भिन्न भवा संता फेरि जीवभाव नाहीं प्राप्त होय है । ऐसे ज्ञानमय भाव रागादिकरि अतंकीर्ण संभवे है ।
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