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+ परमार्थते अत्यंत भेद है । ऐसे भेद जाने सो भेदविज्ञान है, सो भलैप्रकार सिद्ध होय है। अब इस अर्थका कलशरूप काव्य कहे हैं।
शार्दूलविक्रीडितच्छन्दः चंद्रप्यं जडरूपतां च दधतोः कृत्वा विभाग द्वयोरन्तरुणदारणेन परितो ज्ञानस्य रागस्य च ।।
मेदज्ञानमुदेति निर्मलमिदं मोदध्यमध्यासिताः शुद्धज्ञानघनौषमेकमधुना सन्तो द्वितीयच्युताः ॥२॥ अर्थयह निर्मल भेदज्ञान है सो उदय प्राप्त होय है । सो याका निश्चय करनेवाले सत्पुरुपनि संबोधन करि कहे हैं । जो सत्पुरुषही ! तुम याकू पायकारे, अर अवर द्वितीय जो रागा-म दिक भाव, तिनि” रहित भये संते, एक शुद्धज्ञानघनका समूहकूआश्रय करि, तिसमें लीन भये .. संते बडा आनंद मानू । जाते यह कहा करि उदय होय है ? चैतन्यरूप ताकू धारता संता तौ ॥ ज्ञान अर जडरूपताकू धरता राग, तिनि दोअनिके अज्ञानदशामें एकपणासा दीखे हैं। तिनिका - अंतरंगविर्षे अनुभवके अभ्यासरूप बलकरि उत्कृष्ट विदारणकरि सर्वप्रकार विभागकरि उदय । होय है।
भावार्थ-ज्ञान तो चेतनास्वरूप है अर रागादि पुद्गलविकार जड है । सो अज्ञानतें एक जडरूप भासे है। सो भेदविज्ञान जब प्रगट होय है, तब ज्ञानका अर रागादिकका भिन्नपणाका ॥ अंतरंग अनुभवके अभ्यासते प्रगट होय है । तब ऐसें जाने है, जो ज्ञानका स्वभाव तौ जानने- ..
मात्र ही है अर ज्ञानमें रागादिककी कलुषता मलिनता आकुलतारूप संकल्प विकल्प भासे हैं, " ॐ सोए सर्व पुद्गलके विकार हैं जड हैं । ऐसा ज्ञानका अर रागादिकका भेदका आस्वाद आवे .
है।सो यह भेदविज्ञान सर्व विभावभाव मेटनेकू कारण होय है, अर आत्माकू परमसंवरभावकू प्राप्त करे है। तातें सत्पुरुषनिकू कहे हैं, जो याकू पायकरि रागादिकते च्युत होय शुद्ध ज्ञानधन ॥ आत्माका आश्रय ले आनंदकू प्राप्त होऊ । अव कहे है--जो ऐसे यह भेदविज्ञान जिस काल ._ जानके रागादि विकाररूप विपरीतपणाकी कणिकाकून प्राप्त करता अविचलित है, तिसकाल.
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