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ॐ ॥
तथा ज्ञानिनस्तु पूर्व ये बद्धाः प्रत्यया बहुविकल्पम् । उमप 卐
बघ्नन्ति कर्म से नयपरिहीनास्तु ते जीयाः ॥१७॥ युगलम् ॥ आत्मख्यातिः-यदा तु शुद्धनयात् परिहीणो भवति ज्ञानी तदा तस्य रागादिसद्भावात् पूर्वपद्धाः द्रम्पप्रत्ययाः 卐 स्वस्य हेतुत्वहेतुसद्भावे हेतुमभावस्यानिवार्यत्वात् झानावरणादिभावैः पुद्गलकर्मयं, परिणमयंति न चैतदप्रसिद्ध
पुरुषगृहीताहारस्योदराग्निना रसरुधिरांसादिभावैः परिणामकारणस्य दर्शनात् । । अर्थ-जैसे पुरुषने आहार ग्रहण कीया सो आहार उदराग्निकरि युक्त भया अनेकप्रकार मांस . बसा रुधिरादि भावनिरूप परिणमे है, तैसें ज्ञानीके पूर्वे बंधे जे द्रव्यास्रव, ते बहुत भेद लीये का कर्मणिपू बांधे हैं। बहरि जिलिस ए कर्ज दधे हैं ते जीव कैसे हैं ? नयकरि हीन भये हैं, शुद्ध
नयतें छूटि गये हैं, रागादि अवस्थाकू प्राप्त भये हैं। - टीका-जिसकाल ज्ञानी शुद्धनयतें परिहीन होय है, छूटे है, तिसकाल ताके रागादिभावनिका 4 सद्भावतें पूर्वे बांधे थे जे प्रत्यय कहिये द्रव्यात्रत्र, ते अपनाहेतु पणाका हेतुका सद्भाव होतें हेतु.॥
मत् कहिये कार्य, ताका भावका अनिर्वारण है अवश्य होय है, तातें ज्ञानावरणादिभावनिकरि म पुद्गलकर्मळू बंधरूप परिणमावे हैं। सो यहू अप्रसिद्ध नाही है। दृष्टांतकरि प्रसिद्ध है। जैसे ._ पुरुषकरि ग्रह्या जो आहार ताका उदराग्निकरि रस रुधिर मांसादि भावनिकरि परिणाम करनेका प्रत्यक्ष दर्शन है देखिये है तैसें जानना।
भावार्थ-ज्ञानी शुद्धनयतें छूटे तब रागादिभावनिका सदभाव होय, तब रागादिरूप भया संता कर्मनिकू बांधे है। जातें रागादिभाव हैं ते द्रव्यास्त्रव निमित्त होय, तब ते आत्रब अवश्य कर्मबंधकू कारण होय हैं । इहां इस अर्थका तात्पर्यरूप श्लोक है।
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इदमेवात्र तात्पर्य हेयः शुद्धनयो न हि । नास्ति बन्धस्तदत्यागात्तयागाद्वन्ध एव हि ॥१०॥ अर्थ-इहां पहले कथनविर्षे यह तात्पर्य है, जो शुद्धनय है सो त्यागनेयोग्य नाही है यह उप
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