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• अपेक्षा ऐसी जाननी -जो प्रथम तौ ज्ञान जाकै होय सो ज्ञानी कहिये । सो सामान्य ज्ञानकी अपेक्षा at a at t हनी हैं। बहुरि सम्यग्ज्ञान मिथ्याज्ञानकी अपेक्षा लीजिये तब सम्यदृष्टी के सम्यग्ज्ञान है ताकी अपेक्षा ज्ञानी है । मिध्यादृष्टि अज्ञानी है। बहुरि संपूर्ण ज्ञानकी अपेक्षा 'ज्ञानी कहिये, तब केवली भगवान् ज्ञानी है । जातै सर्वज्ञ न होय, तेतैं पंचभावनिकी कथनी में 5 + अज्ञानभाव वारमा गुणस्थानताई सिद्धांतमें कया है । ऐसे अनेकांत विधिनिषेध सर्व अपेक्षा 卐 निर्वाध सिद्ध होय है । सर्वथा एकांततें किछू भी नाहीं सधे है। ऐसे ज्ञानी होय बंध नाहीं करे है, सो यह शुद्धtयका माहात्म्य है, तातें शुद्धयका महिमाकर कहे हैं।
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वसन्ततिलका छन्दः
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अध्याय शुद्धोधचिहकाग्रयमेव कलयन्ति सदैव ते । रागादिमुक्तमनसः सततं भवन्तः पश्यति बन्धविधुरं समयस्य सारम् ||८||
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भावार्थ - इहां शुद्धनयकरि एकाग्र होना कह्या, सो साक्षात् शुद्धनयका होना तो केवलज्ञान भये होय है । र श्रुतज्ञानका अंश है। सो इसके द्वारे शुद्धस्वरूप
करना तथा ध्यानकरि एकाग्र होना है सो यह परोक्ष अनुभव है । एकदेश शुद्धकी अपेक्षा व्यवहारकरि प्रत्यक्ष भी कहिये है । फेरि कहे हैं, जे यातें चिगे हैं ते कर्म बांधे हैं।
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अर्थ — जे पुरुष शुध्दनयकूं अंगीकार करि निरंतर एकाग्रपणाका अभ्यास करे हैं कैसा है क शुध्दनय ? उध्दतबोध कहिये काहूका दाव्या न दबै ऐसा उज्वलज्ञान सो हैं चिन्ह जाका-सो • इसका अवलंबन करनेवाले पुरुष रागादिककरि रहित है मन जिनिका, ऐसे निरंतर होते संते बंधकरि रहित जो समयसार -अपना शुद्ध आत्मस्वरूप, ताहि अवलोकन करे हैं ।
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वसन्ततिलका छन्दः
प्रच्युत्य शुध्दनयतः पुनरेव ये तु रागादियोगमुपयान्ति विमुक्तबोधाः ।
ते कर्मबन्धमिह विश्रति पूर्वपद्रव्यासूवैः कृतविचित्रविकल्पजालम् ॥६॥
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