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समय २३३
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अथ संवराधिकारः ।
दोहा - मोहरागरुप दूरि करि समिति गुप्ति व्रत पारि । संवरमय आतम कीयो नमू ताहि मन धारि ॥ १ ॥
अब रंगभूमि मैं संवर प्रवेश करे है। तहां प्रथम ही टीकाकार मंगलके अर्थ, सर्व स्वांगका जाननेवाला जो सम्यग्ज्ञान, ताकी महिमारूप मंगल करे हैं ।
शार्दूलविक्रीडित छन्दः
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अर्थ — चैतन्यस्वरूपमय स्फुरायमान प्रकाशरूप ज्योति है सो उदयरूप होय फैले है । कैसा 5 है ? अनादिसंसारतें लगाय अपना विरोधी जो संवर, ताकी जीतिकरि एकांतपणे मदकूं प्राप्त भया जो आस्रव ताका तिरस्कारतें पाया है नित्य विजय जाने ऐसा संवरकू निपजावता संता है । बहुरि परद्रव्य तथा परद्रव्यके निमित्ततें भये भाव, तिनितें भिन्न है । बहुरि कैसा है ? अपना सम्यकू कहिये यथार्थस्वरूप, ताविषे निश्चित है। बहुरि कैसा है ? उज्वल है, निरावाच निर्मल driveमान प्रकाशरूप है । बहुरि कैसा है ? अपना रस जो ज्ञानरूप प्रवाह, ताका है प्राग्भार 15 जाकै- अपना रसका बोझकू लीये है, अन्य बोझ उतारि धरया है ।
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आसंसारविरोधिसंवरजयैकान्तावलिप्तास्रवन्यक्कारात्प्रतिलब्ध नित्यविजयं सम्पादयत्संवरम् ।
व्यावृत्तं पररूपतो नियमितं सम्यस्फुयोतिचिन्मय विजशा भारमुज्जृम्भते ॥१॥ तत्रादावेव सकलकर्मसंवरणस्य परमोपाय भेदविज्ञानमभिनंदति ।
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भावार्थ -- अनादितें आस्रवका विरोधी संवर है । ताकूं आसूत्र जीतिकरि मदकरि गर्वित तथा 5 ताका तिरस्कार करि जीतिकं प्राप्त भया जो संवर, ताकूं प्राप्त करता, अर समस्त पररूपतें न्यारा 5 होय, अपना रूपविषै निश्चल होय, यह चैतन्यप्रकाश है, सो अपना ज्ञानरसरूप भारकूं लीये 5 निर्मल उदयरूप होय है। आगे, संवरकी प्रवेशकी आदिहीविषै समस्तकर्मका संवर होनेका उत्कृष्ट उपाय भेदज्ञान है, ताकूं प्रशंसारूप कहे हैं। गाथा
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