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प्रदेश है । जाते तिस शुद्धनयके अत्यागते तो कर्मका बंध नाही होय है। बहुरि तिसके त्यागते 5 - कर्मका बंध होय ही है । फेरि तिल शुद्धनयहीके ग्रहणकू दृढ करते संते काव्य कहे हैं। ___ शार्दूलविक्रीडित छन्दः
___ पर धीरोदारमहिन्यनादिनिधने पोधे निवघ्नन्धति त्याज्यः शुद्धनयो न जातु कृतिभिः सर्वकषः कर्मणाम् ।
तत्रस्थाः स्वमरीचिचक्रमचिरात्संहृत्य निर्यद्वहिः पूर्ण ज्ञानधनौघमेकमचलं पश्यन्ति शान्तं महः ॥११॥ 卐 अर्थ-पुण्यवान् महंतपुरुषनिकरि शुद्धनय है सो कदाचित् भी छोडनेयोग्य नाहीं है। कैसा है ॥ .. शुद्धनय ? ज्ञानविर्षे थिरताकू अतिशयकरि बांधता संता है। कैसा ज्ञानवि थिरता बांधे है ?
धीर कहिये चलाचलपणेते रहिस का उदात् कहिये सर्वार्थनिों आप विस्तरता है महिमा 卐 पर जाकी । बहुरि कैसा है ज्ञान ? अनादिनिधन है-जाका आदि अंत नाही है। बहुरि कैसा है
शुद्धनय ? कर्मनिका सर्वकष कहिये मूलते नाश करनहारा है। ऐसे शुद्धनयके विर्षे जे तिष्ठे 卐 हैं, से पुरुष अपनी ज्ञानको मरीचि कहिये व्यक्तिविशेष, तिनिकू तत्काल समेटिकरि कर्मके पटलतें
बाह्य निसरता अर संपूर्णज्ञानधनका समूहस्वरूप निश्चल जो शांतरूप मह कहिये ज्ञानमय तेज 5 प्रतापका पुंज, ताहि अवलोकन करे हैं।
भावार्थ-शुद्धनय है सो आत्माकू एक ज्ञानमय तेज प्रतापका पुंज ताहि एक चैतन्यमात्र । समस्तज्ञानके विशेषनिकू गौणकरि, अर समस्त परनिमित्ततें भये भावनिकू गौणकरि, शुद्ध नित्य - अभेदरूप एककू ग्रहण करे है । सो ऐसे शुद्धका विषयस्वरूप अपना आत्माकू जे अनुभवे
हैं—एकाग्र होय तिष्ठे हैं, ते समस्त कर्मका समूहते न्यारा संपूर्ण ज्ञान जो केवलज्ञानस्वरूप + अमूर्तिक पुरुषाकार वीतराग ज्ञानमूर्तिस्वरूप अपना आत्मा, ताहि अवलोकन करे हैं। या शुद्ध
"नयके विर्षे अंतर्मुहूर्त तिष्ठे शुक्लध्यानकी प्रवृत्ति होयकरि केवलज्ञान उपजे है ऐसा याका माहात्म्य 卐 है। सो याकू अवलंबन करि फेरि जेतें केवलज्ञान न उपजे तेते यातें चिगना नाहीं, ऐसा श्रीम .- गुरुनिका उपदेश है । ऐसें आसूत्रका अधिकार पूर्ण कीया । अब रंगभूमिमैं भासूत्रका स्थान प्रवेश
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