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म सो ज्ञानी तौ निरासूव ही है । जातें कर्मका उदयका कार्य जो जीवका भाव रागद्वेषमोहरूप 卐 - आस्वभाव ताका अभावकू होतें द्रव्यासूवनिके बंधका कारणपणा नाहीं है।
भावार्थ-सत्ता, मिथ्यावादि द्रव्यासूब विद्यमान हैं, तोऊ ते आगामी बंधके करनेवाले का 卐 नाहीं हैं, जातें बंधके करनेवाले तो जीवके भाव रागद्वेषमोहरूप होय हैं ते हैं । सो मिथ्यात्वादि .. द्रव्यासबके उदयके अर जीवके भावनिके कारणकार्यभाव निमित्तनैमित्तिकरूप है। सो जब मिथ्या
त्यादिका उदय आवें, तब जीवका रागद्वेषमोहरूप जैसा भाव होय तिस जीवभावके अनुसार 4
आगामी बंध होय है, । अर जब सम्यग्दृष्टि होय, तब मिथ्यात्व सत्तामनु नाश होय, तब तो " तिसकी लारकी अंनतानुबंधी कषाय तथा तिस संबंधी अविरमण अर योगभाव भी नष्ट के प होय, तब तिस सम्बन्धी जीवके रागद्वेषमोहभाव भी नाहीं होय हैं, तब तिस मिथ्यात्व
“अंनतानुबंधी संबंधी बंध भी न होय था, तिनि प्रकृतिनिका आगामी बंध भी नाहीं होय । 卐अर जो मिथ्यात्वका उपशम ही होय तब सत्तामै रहे, तब सत्ताका द्रव्य उदय विना बंधका ._ कारण ही नाहीं है। बहुरि जेते अविरतसम्यग्दृष्टि आदिक गुणस्थाननिकी परिपाटीमें चारित्रप्रमोहके उदय संबंधी बंध कहा है, सो इहां संसारसामान्यकी अपेक्षा तो बंधमें गिण्या नाहीं ॥
है। जाते ज्ञानी अज्ञानीका विशेष है। जेतें कर्मका उदतमें कर्मका स्वामीपणा राखी परिणमे
है तेते ही कर्मका कर्ता कया है । परके निमित्तते परिणमे, ताका ज्ञाता द्रष्टा होय तब ज्ञानी है, म प्रज्ञाता है सो कर्ता नाहीं। ऐसी अपेक्षातें सम्यकूदृष्टि भये पोछे चारित्रमोहका उदयरूप परिणाम . "होते भी ज्ञानी ही कया है। मिथ्यात्वका उदय हे जेते तिस संबंधी रागद्वेषमोहभावरूप
परिणमनेते अज्ञानी कया है। ऐसे ज्ञानी अज्ञानी कहनेका विशेष जानना। ऐसा बंध अबंधकाम _ विशेष है । बहुरि शुद्धस्वरूपमै लीन रहनेका अभ्यासतें साक्षात् संपूर्णज्ञानी केवलज्ञान प्रकट 卐भये होय है। तब सर्वथा निरासव होय है। ऐसे पहले कह ही आये हैं। अब इस अर्थका 4. कलशरूप काव्य कहे हैं।