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.. अर्थ-तिस पूर्वोक्त ज्ञानीकै पहले अज्ञान अवस्थामैं कर्म बंधे हैं, ते प्रत्ययसंशा करि कहिये ज , ते कार्माणशरीरकरि सहित बंधे हैं, ते जीवके रागादिभाव भये विना पृथ्वीके पिंडसमान हैं। + जैसें मृत्तिका आदि अन्य पुद्गलस्कन्ध हैं, तैसे ते भी हैं।
टीका-जे प्रगटपणे पहले अज्ञानकरि बांधे जे मिथ्यात्व अविरति कषाय योगरूप द्रव्याखव卐 भूत प्रत्यय, ते ज्ञानीकै अन्यद्रव्यभूत अचेतन पुद्गलद्रव्यके परिणामपणातें पृथिवीके पिंडसमान ..हैं, ते सर्व ही अपने पुद्गलस्वभावतें ही कार्माण शरीर ही करि एक होय बंधे हैं, बहुरि जीवकार
नाहीं बंधे हैं । यातें ज्ञानीक द्रव्यास्त्रवका अभाव स्वभाव ही करि सिद्ध है। प भावार्थ-आत्मा ज्ञानी भया तबतें ज्ञानीकै भावास्रक्का तो अभाव भया ही । अर द्रव्या.
स्त्रव है सो मिथ्यात्वादि पुद्गलद्रव्यके परिणाम हैं, ते कार्मण शरीरतें स्वयमेव देघि रहे हैं, से 5 卐 अन्यमृत्तिकाका पिंड हैं, तैसे ते भी हैं, भावात्रवविना कछू आगामी कर्मबंधक कारण नाही, अर ..
पुद्गलमय हैं, तातें अमूर्तिक चैतन्यस्वरूप जीव स्वयमेव ही भिन्न हैं, ऐसा ज्ञानी जाने। अब इस अर्थका कलशरूप काव्य कहे हैं।
उपजातिच्छन्दः भाषासूवाभावमयं प्रपन्नो द्रव्यासवेभ्यः स्वत एव भिमः ।
ज्ञानी सदा ज्ञानमयकभावो निरासूको नायक एक एव ॥३॥ ___ कथं शानी निरास्त्रवः । इति चेत्卐 अर्थ यह ज्ञानी है सो भावासूवके अभावकू तो प्राप्त भया है । बहुरि द्रव्यासूवनितें स्वयके मेव ही भिन्न है । जाते ज्ञानी है, सो सदा ज्ञानमय ही है केवल एक भाव जाका ऐसा है, यातें " निरासूव ही है, एक ज्ञायक ही है।
भावार्थ-भावासूव जे राग द्वेष मोह, तिनिका तौ ज्ञानीके अभाव भया । अर द्रव्यासूव हैं ते
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