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- असाधारण धर्म चिस्वभाव है, सो ही सामान्यभावकरि शुद्धनयका विषय है, तिस ही प्रधान " करि कथन है, सो याके साक्षात् अनुभवके अर्थि ऐसा कया है, जो यामै नयनिके अनेक पक्षपात म उपजे हैं । बद्ध अबद्ध, मूढ अमूह, रागी विरागी, द्वेषी अद्वेषी, कर्ता अकर्ता, भोक्ता अभोक्ता, - जीव अजीव, सूक्ष्म स्थूल, कारण अकारण, कायें अकार्य, भाव अभाव, एक अनेक, सान्त " असान्त, नित्य अनित्य, वाच्य अवाच्य, नाना अनाना, चेत्य अचेत्य, दृश्य अदृश्य, वेद्य अवेय, म - भात अभात इत्यादि नयनिके पक्षपात हैं । सो तस्वका अनुभवन करनेवाला पक्षपात नाहीं करे .. "है। नयनिकू तो यथायोग्य विवक्षातें साधे है । अर चैतन्यकू चेतनमात्र ही अनुभवन करे है। । इस ही अर्थका संक्षेपकरि काव्य कहे हैं।
वसन्ततिलकाछन्दः स्वेच्छासमुच्छलदनल्पविकल्पजालामेवं व्यतीत्य महतीं नयपक्षकक्षा ।
अंतर्वहिःसमरसैकरसस्वभाव स्वं भायमेकमुपयात्यनुभूतिमात्रं ॥४॥ 5 अर्थ-जो तत्त्वका जाननेशला पुरुष है सो पूर्वोक्त प्रकार आपै आप उटते हैं बहुतविकल्प- - निके जाल जामैं, ऐसी जो बडी नयपक्षरूप वन ताकू उल्लंन्यकरि अर समरस जोवीतराग भाव । सो ही है एकरस जामें ऐसा है स्वभाव जाका ऐसा जो आत्माका भाव अपना स्वरूप अनुभूति-卐 + मात्र, ताकू प्राप्त होय है । फेरि कहे है
रथोड़ताछन्दः इंद्रजालमिदमेवमुच्छलत्पुष्कलोच्चलविकल्पवीचिभिः । यस्य विस्फुरणमेव तत्क्षणं कृत्वमस्य वि तदस्मि चिन्महः ॥४६॥
卐 . पक्षातिकांतस्य किं स्वरूपमिति चेत् ? . अर्थ-तत्ववेदी ऐसा अनुभवन करे है जो मैं चिन्मात्र मह तेजका पुंज हूं। जाका स्फुरा
5२३६ र यमान होना ही वड़ी बड़ी पुष्ट उठती चंचल जे विकल्परूप लहरी, तिनि करि उछलता इनि नय. " निके प्रवर्तनरूप इंद्रजाल, ताही तत्काल समस्तनिकू दूरी करे है।