________________
+
+
+
+
+
जीव अर अजीव दोऊ कर्ता कर्मके वेषकरि एक होय नृत्यके अखाडे में प्रवेश किया था, सो .. सम्यग्दृष्टीका ज्ञान यथार्थ देखनेवाला है, सो दोऊ न्यारे न्यारे लक्षणते दोय जानि लीये, तब वेष दूरि करी, रंगभूमितें बाह्य नीसरी गये । बहुरूपोका वेषका यह ही प्रवर्तन है जो देखने-।। वाला जेते पहिचाने नाही, तेते चेसा किया करें, अर यथार्थ पहिचानि ले तब निजरूप प्रगट । करि चेष्टा न करता बैठि रहै, तैसें जानना । ऐसें कर्ताकर्म नामा दूसरा अधिकार पूर्ण भया। म
___ सवैया तेईसा जीव अनादि अज्ञान वसाय विकार उपाय वर्ण करता सौ, ताकार बंधन आन तणू फल ले सुख दुःख भवाश्रमवासो । ज्ञान भये करता न वणे तब कंध न होष सुलै परपासो,
आतममोहि सदा सुविलास को सिक पाय रहै निति थासो ॥१॥ याकी गाथा ७६ । कलसा ५४ । अर पहिला अधिकारकी गाथा ६८ । फलसा ४५ ।
सब मिलि गाथा तौ १४४ भई अर कलसा १६ भये । ऐसें इस समयसारग्रंथकी आरमख्यातिनामा टीकाकी वचनिकाषिर्षे दूसरा कर्ताकर्मनामा अधिकार पूर्ण भया ॥२॥
+
+
乐 乐乐 乐 $ $ $$ $$$ $
+
+
+
+
अथ पुण्यपापाधिकारः। दोहा-पुण्य पाप दोऊ करम बंधरूप दुर मानि । शुद्ध आत्मा जिन लझो नमू चरन हित जानि ॥१॥ ॥ आत्मख्यातिः-अथैकमेव कर्म द्विपात्रीभूय पुण्यपापरूपेण प्रविशति--
अब टीकाकारके वचन हैं । तहां कर्म एक ही प्रकार है, सो दोष जो पुण्यपापरूप तिनिकरि । प्रवेश करे है। जैसें नृत्यके अखाडे मैं एक ही पुरुष अपने शेष रूप दिखाय नाचे, सा५ स्था
+
+ !